शिशिर मावठ ठिठुरन हाड़ कँपाती लहूँ जमाती,
खुले अम्बर के नीचे चिथड़ों में गरीबी रात बिताती!

डगमग डगमग गरदन हाले दांत बजे ज्यों खरताल,
नासा रन्ध्र जम गई मुखविवर भट्टी सा सुलगे सांसे बेताल!

दरख्तों पर जम गयी तुषार पात की बूंदे नन्ही,
हरित धरा ने ओढा रजत दुकुल मानो नवोढ़ा तन्वी!

शान्त रत्नाकर उतंग लहरों के मंथन से फेनिल हुआ,
दिनकर की तपन भी शरद से बचने की मांगे दुआ!

मगहर में गहन सरोवर खिले पाटल शतदल विमल,
मानसरोवर मुक्ता फल चुगता करता मधुर कलरव!

देवालय की मुँडेर पर चुगता दाना विहंग वृन्द,
गोधूली में लंबे डग भरती गो पय भार लंबित स्तन!

बेर की झाड़ियों पर पके फल सुधा मृदु रतनार,
हवा के झोंके से पास बुलाने को झुक करें मनुहार!

कनक बालियां तृप्त हुई पाकर बारिस की फुंहार, सरषप के पीले फूलों की क्यारियां भँवरे करें गुंजार!

@ गोविन्द नारायण शर्मा

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