एक तरफ रोते बिलखते परिवार जन और वहीं दूसरी तरफ तरह-तरह के व्यंजन परोसे जाने का वह दृश्य आखिर क्या कुछ बयां नहीं करता, संस्कार ,प्रथा, धर्म, ओर परम्पराओ के नाम पर  “दुबले को दो आसान ” वाली कहावत को चरितार्थ करती हुई ।
   एक मार्मिक खबर पिछले दिनों प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुर्खियां बनी जो हमें आज की   इस 21वीं सदी में सोचने पर मजबूर कर देती  है  ख़बर के अनुसार मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले की पंचायतों ने एक गरीब किसान जिसका 15 वर्षीय पुत्र  जिसकी कुएं में गिरने से मृत्यु हो गई थी और आर्थिक परेशानियों से बेहाल तथा लॉक डाउन की पाबंदीयो  के चलते  वह अपने नाबालिक बच्चे का मृत्यु भोज नहीं कर सका और इसी वजह से पंचायत ने उसे अपराधी मानकर समाज से बाहर करने का तुगलकी  फरमान सुना दिया। एक तरफ तो उस गरीब किसान ने अपने नाबालिग पुत्र की मृत्यु पर दुख झेलना पड़ा वहीं दूसरी ओर सामाजिक ओर धार्मिक  प्रथाओं के नाम पर  उस पर  कुठाराघात किया जाता है।

मृत्यु भोज से अभिप्राय


   सामान्यतः  मृत्यु भोज का तात्पर्य इस बात से लगाया जाता है कि जब किसी परिवार में किसी परिवार जिनकी मृत्यु हो जाए तो उसके उत्तराधिकारी द्वारा प्रतिभोज करना पडता है, इसे ही मृत्युभोज कहते है ।  मृत्यु भोज की शुरुआत कब और कैसे हुई इस विषय पर कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन कहीं न कहीं मृत्यु भोज की शुरुआत मृतक के परिवार या समाज से ही शुरू हुई है जब किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो परिवारजन और समाज और परिचित व्यक्ति मृतक के परिवार के साथ संवेदना जताने के लिए उसके वहां आते और  मृत्तक का परिवार अपने आगंतुक के लिए भोजन की व्यवस्था के लिए प्रतिबद्ध होता है  लेकिन दीर्घ अवधि के पश्चात इस पर  विचार मंथन किया ओर इसके  लिए दिन निश्चित कर दिया जाए इसी के आधार पर समाज के द्वारा धर्म गुरुओं की सलाह ओर धार्मिक महत्व   को ध्यान में रखते हुए 12 वा या 13  वा दिन भोज का आयोजन निश्चित करने की परिपाटी शुरू हो गई लेकिन वह प्रथा और वह परिपाटी धीरे-धीरे अपने विकृत रूप में आ गई और उस भोज में तरह-तरह के मिष्ठान बनाए जाने लगे । मृत्यु भोज की प्रथा किसी न किसी रूप में हर समाज में देखने को मिलती हैं। 

धार्मिक कर्मकाण्ड और मृत्यु भोज


    धार्मिक दृष्टिकोण से देखे तो स्थानीय मान्यता के अनुसार, तीन या चार दिन बाद शमशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है। सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा, नर्मदा या अन्य पवित्र नदी में विसर्जित किया जाता है। दसवें दिन घर की सफाई या लिपाई-पुताई की जाती है। इसे दशगात्र के नाम से जाना जाता है। इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान व महापात्र को दान आदि किया जाता है। द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है। गंगा के पवित्र जल को घर में छिड़का जाता है। अगले दिन त्रयोदशी पर तेरह ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है। इसे ही मृत्युभोज कहा जाने लगा है। इसे  स्थानीय भाषा में नुक्ता या मौसर  ओर गंगोज भी कहा जाता है ।

 क्या है ? मोसर और जोसर में अन्तर


मोसर मृतक के उत्तराधिकारियों द्वारा किया जाता है इसके अतिरिक्त संपन्न परिवारों द्वारा अपने परिवार के किसी व्यक्ति की जीवित होने की अवस्था में ही उस व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा से  भोज करने की परंपरा भी है जिसे स्थानीय भाषा में जोसर कहा जाता है हालांकि हमारे धार्मिक ग्रंथ ओर पुराण  में इसका कोई उल्लेख नही मिलता है । 

मृत्यु भोज और धर्म


 मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति के लिए मृत्यु भोज में जो कि एक धार्मिक कर्मकांड है ब्राह्मणों ओर अपने रिश्तेदारों को भोजन करवाने  और उन्हें  कुछ वस्तुएं  भेट करने का प्रावधान और प्रचलन है लेकिन  वर्तमान में मृत्यु भोज जो विकृत रूप  ले चुका है  जो कि आज हिंदू धर्म में सोलह संस्कार माने जाते हैं  जिनमें  गर्भाधान प्रथम व अंतिम संस्कार अंत्येष्टि  माना जाता है तो फिर  मृत्यु भोज के रूप में यह 17वे संस्कार का प्रचलन क्यों ।
  महाभारत में भी मृत्यु भोज को लेकर बड़ा ही रोचक प्रसंग है जब भगवान श्री कृष्ण कौरवों के पास युद्ध न करने का संदेश लेकर गए थे दुर्योधन ने युद्ध न करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया लेकिन दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण से भोजन करके जाने का अपील की अब भगवान श्री कृष्ण ने समझाया कि ” संपरीति भोज्यानी आपदा भोज्यानी व  पुने: ” अथार्थ जब खिलाने वाला वह खाने वाले का मन प्रसन्न हो तो ही भोजन करना चाहिए अगर खाने वाले और खिलाने वाले के मन में वेदना हो तो वहां भोजन करना वर्जित है उचित नहीं जब किसी के घर में मौत हो जाती है वहां पर खिलाने वाले और खाने वाले के मन में प्रसंता नहीं बल्कि वेदना होती है हमें स्वयं को यह सोचना चाहिए कि क्या ऐसी परिस्थितियों में इसे वहां भोज करना और महाभोज में खाना खाना उचित है ।

आज मृत्यु भोज विकृत रूप में 


यह  घटना तो एक उदाहरण मात्र है  ऐसी प्रथाएं समाज का हिस्सा बन गई है जेड जमा चुकी है भारतीय समाज मे ऐसा ही होता आया है और आज भी हो रहा है । मृत्युभोज की कुप्रथा आज मजबूरी बन गई है या इसे मजबूरी बना दी गई है इसे धर्म,ओर प्रतिष्ठा के साथ जोड़ कर  देखा जाता है प्राचीन मान्यताओं से आगे बढ़कर मृत्यु भोज में तरह तरह के पकवान बनाए जाते हैं महाभोज का आयोजन किया जाता है।  गरुण पुराण के अनुसार परिचितों और रिश्तेदारों को मृतक के घर पर अनाज, रितु फल, वस्त्र व अन्य सामग्री लेकर जाना चाहिए। यही सामग्री सबके साथ बैठकर ग्रहण की जाती थी। लेकिन आज इसका मूल रूप कही पीछे छूट गया और ये एक विकृत रूप लेकर कुप्रथा बन गई है ।एक तरफ अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से बारवे / तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..? इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है।  क्या इन्हीं घटनाओं के आधार पर देश एक बार फिर विश्व गुरु बनेगा क्या यही हमारा विकास है 

लॉक डाउन की पाबन्दियों ने दिया सकारात्मक संदेश


  कोरोना महामारी के दौर में लॉक डाउन में सोशल डिस्टेंस और कानूनी पाबंदीयो के परिणामस्वरूप इस दौरान हुई मौतो के बाद उनके परिजन मृत्युभोज नही कर पाए और सारी रस्मे सादगी से ही सम्पन्न हुई  लेकिन एक सवाल मन और मस्तिष्क में यह जरूर छोड़ गया कि जब कोरोना और लॉक डाउन  के काल में मजबूरी वश  ही सही मृत्यु भोज जैसी सामाजिक कुरीति पर रोक लग सकती है लोग उसके बिना भी अपने रस्मो रिवाज को निभा सकते हैं तो फिर एक गरीब को दोहरी मार मारने वाली मृत्यु भोज की इस कुप्रथा की समाज में क्या  आवश्यकता है । लोकदल ने हमें एक बार फिर सोचने को मजबूर कर दिया है और ऐसी प्रथा के खत्म करने के  विषय में विचार विमर्श करने को मजबूर कर दिया है लोक डाउन के दौरान मृत्यु भोज को लेकर जो एक संदेश समाज में गया है हमे इस संदेश को आगे भी हमें जारी रखना  चाहिए ।  हम धर्म और आस्था को ठेस पहुंचाने का उद्देश्य नहीं रखते हैं सबकी अपनी-अपनी आस्था और अपना अपना विश्वास है लेकिन धर्म के नाम पर कुप्रथाओं का प्रचलन रखना ऐसे प्रथाओं को मजबूरन मानने के लिए समाज या समाज के ठेकेदारों द्वारा बाध्य  करना प्रथाओं- कुप्रथाओं का पालन नहीं करने पर उसे समाज और जाति से बाहर कर  उसे मानसिक पीड़ा पहुचाना  क्या यह सब कुछ धर्म सम्मत है।

कुप्रथाओ  को रोकने में कानूनी मदद की जरूरत


आज नहीं वरन युगो युगो से धर्म और आस्था के नाम पर समाज में कुप्रथाओ का प्रचलन रहा है  प्राचीन समय हो या मध्यकाल ऐसी प्रथाओ ने समाज और मानव जीवन को प्रभावित किया है ।  स्वतंत्रता से पहले भी अनेक समाज सुधारको द्वारा सती प्रथा , विधवा विवाह निषेध, बाल विवाह, विधवाओं को कुरूप कर देना जैसी अनेक कुरीतियां थी  उनको समाज से मिटाने में आम जनता को जागरूक करने का प्रयास  समाज सुधारकों  किया  राजा राम मोहन राय के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता  उनके ही प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिंक के कार्यकाल में सती प्रथा निषेध कानून का निर्माण कर कुप्रथा को रोकने का प्रयास किया   स्वतंत्रता के पश्चात थी सरकारों द्वारा सती प्रथा निषेध कानून बनाकर उस पर पूर्णतया पाबंदी लगा दी गई बाल विवाह जैसी प्रथा को रोकने में जितना प्रयास समाज सुधार को ने किया उतना ही प्रयास हमारे कानून निर्माताओं ने कानून बनाकर उसे रोकने में किया । जब सरकार कानून निर्माण करके ऐसी प्रथाओं को रोक सकती है।  लॉक डाउन में मृत्यु भोज को रोक सकती है  तो क्या आने वाले समय में भी सरकार मृत्यु भोज ऐसी कुप्रथाओं को रोकने के लिए कानून निर्माण करके भी रोक नही लगाई जा सकती है । क्या लॉक डाउन मे मृत्यु भोज पर  लगाई गई पाबन्दियों को स्थायी रूप नही दिया जा सकता  । 

राजस्थान मृत्यु भोज निषेध अधिनियम 1960 के तहत रोक


सामाजिक ओर धर्म के नाम पर  कुरीतियों  तथा प्रथाओ को रोकने का जिम्मा समाज और सरकार दोनों का होता है । मृत्यु भोज जैसी कुप्रथा को लेकर जब कानून की बात की जाती है तो राजस्थान राज्य में इससे संबंधित कानून बहुत पहले से ही बना हुआ है जो “राजस्थान मृत्युभोज निषेध अधिनियम 1960” के रूप में  लागू है । इस अधिनियम  में मृत्यु भोज को परिभाषित किया गया है तथा अधिनियम की धारा 2 के अनुसार  मृत्यु भोज करना और करवाना दोनों अपराध की श्रेणी में आता है तथा धारा 3 के अनुसार  किसी भी प्रकार के  मृत्यु भोज में शामिल होना भी  अपराध की श्रेणी में आता है । अधिनियम की  धारा 4 के अनुसार ऐसा अपराध करने पर या इस अधिनियम का उल्लंघन करने पर एक वर्ष की सजा  तथा ₹1000 का जुर्माना उस पर लगाया जा सकता है लेकिन इस प्रकार के कानून का प्रावधान  राजस्थान के अतिरिक्त बाकी राज्यों में नही है और  न ही देश की संसद के द्वारा इस बारेे में कोई  अधिनियम अब तक पारित किया है । समाज से इस सामाजिक बुराई को खत्म करना है तो  समाज और सरकारों दोनों को गंभीर होना होगा ऐसा अधिनियम न केवल लानेेेे जरूरत है बल्कि उसे गंभीरता से  लागू  किए जाने की  भी आवश्यकता है ।

समाज  में जागरूकता जरूरी


समाज सुधार की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले समाज सुधारक समय की आवश्यकताओं को देखते हुए सकारात्मक सोच के साथ समाज को जागरूक करें मृत्युभोज जैसी कुप्रथा को बढ़ावा देने वाली विचारधाराओं और ऐसी प्रथाओं को बढ़ावा देने वाले लोगों का बहिष्कार करने की सोच लेकर प्रयास किया जाए तो निश्चित रूप से समाज से ऐसे प्रथाओं को खत्म किया जा सकता है । बस हमें उस रोज और उस नजरिए को बदलना होगा जिसमें एक्टर होता है कि लोग क्या कहेंगे लोग क्या सोचेंगे लोगों का तो काम ही है सूचना और कहना अगर बदलाव करना है तो हमें इससे ऊपर उठना होगा । कुछ समाज/जातियों ने ऐसी पहल भी की है   जो काबिल ए तारीफ है । इस विषय पर लोगो के अगल-अलग तर्क एव मत हो सकते  है  लेकिन यह विषय आमजन  ओर आमजन जी भावनाओ तथा धर्म से जुड़ा हुआ है है इसलिये इसका हल ओर समाधान भी आम राय से ही निकाला जा सकता है और वो ही कारगर भी हो सकेगा ओर ऐसा हो भी सकता है । आज बस आवश्यकता है तो एक सकारात्मक सोच ओर सकारात्मक प्रयास की ।
प्रयास  भले छोटा ही सही एक शुरुआत तो होनी चाहिए,कब तक अंधेरे में रहोगे अब दीपक जला लेना चाहिए।जला है आज दीपक तो कल  एक मशाल जलनी चाहिए,किसका इंतजार है अब छोटा सा बदलाव होना चाहिए”।।

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