” यह मजदूर का हाथ है कातिया यह ताकत खून पसीने से कमाई हुई रोटी की है जो लोहे को पिघलाकर उसका आकार बदल देता है  “जी एक दम सही सुना आपने   यह एक सन्नी देओल की फिल्मी डायलॉग जरूर है लेकिन वास्तविकता को बयान करता  यह डायलॉग आज  भी अपनी  सार्थकता बयान करता है लेकिन उसी मजदूर का हाथ आज  लॉक डाउन के चलते बेरोजगारी की मार झेल रहा है  उसके हाथ मे काम नही है उसी मजदूर का हाथ  आज दो वक्त के निवाले के लिए मजबूर हो रहा जब किसी भी समाज और देश का मजदूर मजबूर हो जाए तो बड़े बड़े  बदलाव ला देता है
 इन्ही श्रमिको तथा कामगारों (मजदूर / कारीगर) पर किसी भी देश की तरक्की निर्भर होती है। एक मकान को खड़ा करने और सहारा देने के लिये जिस तरह मजबूत “नीव” की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों (कर्मचारीयों) की विशेष भूमिका होती है। और जब यूं ही किसानों और मजदूरों की मेहनत की कीमत को न समझ कर उनके अधिकारों का हनन किया जाता है तो वह मजदूर किसी भी देश की दशा और दिशा को परिवर्तित करने की क्षमता रखता है इसी प्रकार के हालात  मध्यकाल में मजदूरों के साथ हो रहा था अमेरिका में मजदूरों ने अपनी अधिकारों और मांगों के लिए 4 मई 18 86 को शिकागो में है  हे मार्केट में भव्य प्रदर्शन किया था जिसमें उनके प्रदर्शन को गोलीबारी करके कुचल दिया गया  इसी को मध्य नजर रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन 1889 में ऐलान किया गया कि हेमार्केट नरसंघार में मारे गये निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा  1891 से  इसे मनाना शुरू किया लेकिन भारत में मजदूर दिवस (मई दिवस ) पहली बार चेन्नई में सन 1923 में मनाया गया था।

मजदूरो  की बेबसी
कोविड -19 के चलते  लॉक डाउन के परिणाम स्वरूप समाज के इस मेहनतकश वर्ग श्रमिक और मजदूर लोगों पर मानो एक कुठाराघात सा हो रहा हूं लॉक डाउन के चलते एक तरफ तो इनके पास रोजगार नहीं रहा दूसरी तरफ इनके रोजी-रोटी का संकट इन्हें सताने लगा रोजगार छूट जाने के परिणाम स्वरूप प्रवासी मजदूर मानो मझधार में फंसे हुए हैं वे अपने कार्यस्थल पर रह नहीं सकते क्योंकि इनके पास रोजगार नहीं  है  दूसरे उनके सामने  खाने पीने का संकट  हो गया है और  वे लॉक डाउन के कजलते अपने गांव शहर ओर  गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंच सकते   कई मजदूर तो इस संकट का सामना करते हुए भूखे प्यासे अपने सर पर बोझ की गठरी लेकर  अपने नन्ने मुन्ने बच्चों को लेकर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पैदल ही करके अपने गांव शहर ओ पहुंचे कुछ बीच रास्ते में रोक लिये गये  बड़ा ही मार्मिक दृश्य इन मजदूरों का देखने को मिला जो हर किसी का दिल बहला सकता है मजदूरों की मांग पर  कुछ राज्यों में सरकार के द्वारा  मजदूरों को अपने अपने गांव शहर पहुंचाने का बंदोबस्त किया है लेकिन उन्हें इस बात की चिंता और सता रही है कि लोग डाउन की समाप्ति के पश्चात उनकी रोजी रोटी का क्या होगा कहीं वो भूखे मरने को मजबूर तो ना हो जाए  उन श्रमिकों की हालत तो ओर भी खराब है जो रोज कमाते है रोज खाते है । इन्ही सभी बातों को मद्देनजर रखते हुए सरकार को चाहिए कि ऐसे मजदूर और श्रमिक वर्ग को राहत दी जाए और उनके लिए रोजगार का सृजन कर उनकी रोजी रोटी का बंदोबस्त किया जाए  क्योंकि की जब मजदूर के हाथ के रोजगार नही हो तो वो  मजबूत नही मजबूर हो जाता है । दिन अस्त ओर मजदूर मस्त नही  मुदुर आज त्रस्त हो रहा है  ।सच्चे मायने में मजदूर दिवस मनाया जाना तभी औचित्यपूर्ण होगा  जब उसके हाथो में काम होगा दो वक्त की रोटी की चिंता से मुक्त होगा तभी हम कह पाएंगे -दिन अस्त और मजदूर मस्त “। 

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