जिस प्रकार व्यक्ति के व्यक्ति के साथ, पड़ोसी के पड़ोसी के साथ संबंध होते हैं,उसी प्रकार दो देशों के बीच आपसी संबंध, उनके आपसी रिश्ते और उन रिश्तो को अल्पकालीन और दीर्घकालीन दो उद्देश्य को मध्य नजर रखते हुए संपादित किए जाते हैं । 


किसी भी देश की विदेश नीति का उद्देश्य उस देश की संप्रभुता की रक्षा,  राष्ट्रहित की पूर्ति और आर्थिक हितों की पूर्ति से संबंधित होते हैं । इन्हीं उद्देश्य को मध्य नजर रखते हुए कोई भी देश अपने देश की विदेश नीति उसके सिद्धांतों को निर्धारित करता है ।


इसके अतिरिक्त किसी भी देश की विदेश नीति अपने सिद्धांत और अपने उद्देश्य है है और उन सिद्धांतों के निर्माण में अनेक तत्वों का योगदान होता है जैसे ….

● भौगोलिक तत्व 

● उस देश के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

● उस देश के सैनिक स्थिति 

● उस देश की आर्थिक स्थिति 

● विचारधाराओं का प्रभाव 

● देश के नेतृत्व की भूमिका

● नेतृत्व की कार्यप्रणाली का प्रभाव  

● देश के नेतृत्वकर्त्ताओ के व्यक्तित्व  का प्रभाव।

इन सब का प्रभाव किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण पर पड़ता है।

भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 में नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गतअंतर्गत अनुच्छेद 51 में किया गया है।

14 नवंबर 1889 को पिता मोतीलाल नेहरू के घर जन्मे पंडित जवाहरलाल नेहरू को मानो राजनीति विरासत में मिली हो, राजनीति में उनकी गहरी रुचि थी। उन्होंने सर्वप्रथम 1912 में बांकीपुर (बिहार ) कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया था ।  बहुत ही कम समय में 1918 में कांग्रेस महासमिति के सदस्य बने और 1922 में इलाहाबाद नगर पालिका के अध्यक्ष। भारतीय विदेश नीति निर्माण में पंडित जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रभाव देखा जाता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विदेश नीति के तीन आधारस्तंभ बताये थे जैसे  शांति, मित्रता और समानता।

  • नेहरू की विचारधारा का प्रभाव

पंडित जवाहरलाल नेहरू इंग्लैंड की उदारवादी, मानवतावादी जीवन पद्धति से प्रभावित थे।  इसके साथ ही वे समाजवादी विचारधारा के संपर्क में आए जो आगे चलकर लोकतांत्रिक समाजवाद का आधार बना। धर्मनिरपेक्षता ,सकारात्मक राष्ट्रवाद व अंतराष्ट्रवाद, विश्व शांति की विचारधारा के समर्थक थे। 

इसके अतिरिक्त पंडित नेहरू रंगभेद की नीति, साम्राज्यवाद की नीति , उपनिवेशवाद की नीति के घोर विरोधी रहे थे। इन्हीं विचारधाराओ और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रभाव भारतीय विदेश नीति पर बखूबी देखा जा सकता है ।

  • स्वतंत्रता पूर्व विदेश नीति के संबंध में नेहरू का दृष्टिकोण


भारत की विदेश नीति के संबंध में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सितंबर 1946 में कहा था कि भारत विदेशी संबंधों के क्षेत्र में एक स्वतंत्र नीति का अनुसरण करेगा और गुटों की खींचा तानी से दूर रहते हुए विश्व के समस्त पराधीन देशों के लिए आत्म निर्णय का अधिकार प्रदान करने तथा जातीय भेदभाव की नीति का दृढ़ता पूर्वक उन्मूलन करने का प्रयास करेगा, साथ ही वह विश्व के अन्य स्वतंत्रता प्रेमी और शांति प्रिय राष्ट्रों के  साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सद्भावनाओं के लिए निरंतर प्रयासरत रहेगा। पंडित नेहरू के इस दृष्टिकोण से भारतीय विदेश नीति के दृष्टिकोण और आधार तथा उस पर नेहरू के विचारों का प्रभाव स्वत ही देखा जा सकता है। 

  • कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में विदेशी मामलों के दिये सुझाव 

पंडित जवाहरलाल नेहरू 1927 की अपनी यूरोप की यात्रा से जब वापस लौट कर आने के बाद उनके चिंतन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिले । इसी दौरान उन्होंने कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में उन्होंने हिस्सा लिया और विदेशी मामलों से संबंधित अनेक प्रस्ताव उन्होंने इस सम्मेलन के दौरान प्रस्तुत किये जो स्वीकार कर लिए गए । इसके साथ ही उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा कि भारतीय कांग्रेस को औपनिवेशिक स्वराज्य के स्थान पर पूर्ण स्वराज को अपना लक्ष्य घोषित करना चाहिए । इसे अवश्य स्वीकार कर लिया।

  • स्वतंत्रता से पूर्व ‘विदेश विभाग’ के अध्यक्ष 

स्वतंत्रता से पूर्व ही कांग्रेस के द्वारा विदेश विभाग की स्थापना की गई थी।  जिसके अध्यक्ष सन 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया था। इस प्रकार स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत की विदेश नीति के उद्देश्य व सिद्धांतों का विकास शुरू हो गया था ,जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और विचारों का प्रभाव देखा जा सकता है।

  • साम्राज्यवादी विरोधी जेनेवा सम्मेलन में बने थे सह अध्यक्ष

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने न केवल भारत बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की विदेश नीति से संबंधित अपना दृष्टिकोण समय-समय पर स्पष्ट किया था।  इसी क्रम में फरवरी 1927 में जिनेवा में आयोजित साम्राज्यवादी विरोधी सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था और न केवल भाग लिया बल्कि उनको इस सम्मेलन में सह अध्यक्ष दी बनाया गया था। 

  • देश के प्रथम प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में 

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लगभग 17 वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री की जिम्मेदारियां की वहन की थी, इससे कार्यकाल के दौरान भारतीय विदेश नीति का निर्माण हुआ था । इसलिए उनको भारतीय विदेश नीति का जनक, विदेश नीति के निर्माता भी कहा जाता है।

  • संयुक्त राष्ट्र संघ और पण्डित नेहरू का योगदान 

दूसरे महायुद्ध के पश्चात संयुक्त राष्ट्र की स्थापना और उसके सिद्धांतों में पंडित नेहरू ने आस्था प्रकट की थी तथा उसकी स्थापना के समय से ही उसके प्रारंभिक सदस्यों   में से था। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के दौरान भारत के मुदालियर ने हस्ताक्षर किए थे यह सब कुछ पंडित जवाहरलाल नेहरू के मार्गदर्शन में हुआ था।

  • अंतरिम सरकार के दौरान विदेश नीति निर्माण और पंडित नेहरू 

स्वतंत्रता से पूर्व जन्म 2 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ था, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस अंतरिम सरकार का उपाध्यक्ष बनाया था । इसी दौरान भारतीय विदेश नीति की शुरुआत हो चुकी थी जिस पर पंडित जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

  • राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने का निर्णय और नेहरू 

15 अगस्त 1947 को भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात पंडित जवाहरलाल नेहरू और देश के अनेक नेताओं के समक्ष यह सवाल उत्पन्न हुआ था कि भारत को राष्ट्रमंडल का सदस्य बनाया जाए या नहीं लेकिन यह पंडित जवाहरलाल नेहरू की विचारधारा का ही परिणाम था कि उन्होंने एक स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद भारत को राष्ट्रमंडल संगठन का सदस्य बनाए रखे जाने की नीति को अपनाया था।

  • पंचशील समझौता और पंडित नेहरू

पंडित नेहरू विश्व शांति के पक्षधर थे।  इसी क्रम में देखा जाए तो उन्होंने क्षेत्र में शांति स्थापना के उद्देश्य से  भारत और चीन के संबंधों को मद्देनजर रखते हुए 29 अप्रैल 1954 को पंचशील का समझौता किया था। इस समझौते में चीन की तरफ से चीनी प्रधानमंत्री चायू एन लाई व भारत की तरफ से प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हस्ताक्षर किए थे । पंचशील सिद्धांत का तात्पर्य दोनों देशों के बीच आचरण के 5 नियम है जैसे …..

(1) एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान किया जाएगा ।

(2)  एक दूसरे पर आक्रमण नहीं किया जाएगा ।

(3) एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा ।

(4)  पारस्परिक हित व समानता की नीति का पालन किया जाएगा ।

(5)  शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का पालन किया जाएगा।

नेहरू जी की पंचशील समझौते की आलोचना भी की जाती है।  बताया जाता है कि नेहरू जी के अति विश्वास के कारण ही 1962 में भारत को युद्ध का सामना करना पड़ा था । यहां तक की पंचशील समझौते पर राम मनोहर लोहिया ने तो यहां तक कह दिया था कि इस समझौते ने “शिशु तिब्बत की हत्या कर दी है”।

  • रंगभेद,साम्राज्यवाद,उपनिवेशवाद के विरोध की नीति

पंडित जवाहरलाल नेहरु शुरुआत से ही रंगभेद,साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरोधी रहे हैं। स्वतंत्रता से पूर्व ही इनका विरोध करते रहे थे। जब वे देश के पहले  प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री बने तो अपनी विदेश नीति में उन सिधान्तो, विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया।  यहां तक कि बांडुंग सम्मेलन 1955 में उपनिवेशवाद व रंगभेद की नीति को समाप्त करने का संकल्प लिया।

  • अफ़्रो-एशियाई की एकता पर बल

पंडित जवाहरलाल नेहरु शुरुआत से ही एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र राष्ट्रों की एकता के समर्थक रहे थे ।एशियाई राष्ट्रों की एकता बनाए रखने के लिए उनकी एक पहल मार्च 1947 में आयोजित एशियाई सम्मेलन जो कि दिल्ली में आयोजित हुआ था में कई थी।  इंडोनेशिया के प्रश्न पर जनवरी 1949 में दिल्ली में आयोजित किए गए सम्मेलन में भी उन्होंने अफ्रीका एशिया के एकता पर बल देने के लिए उन्होंने पुरजोर प्रयास किया था । उन्होंने सुझाव दिया था कि इन देशों के बीच सहयोग और मित्रता की भावना को मजबूत किया जाना चाहिए। 

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नेहरू

गुटनिरपेक्षता की नीति और पंडित जवाहरलाल नेहरू एक दूसरे के पूरक हैं।  भारत की स्वतंत्रता के समय शीत युद्ध के परिणामस्वरुप पूरा विश्व दो गुटों में बंटा हुआ था।पूंजीवादी गुट और साम्यवादी गुट।  उस समय भारत के सामने यह विकट स्थिति उत्पन्न हो गई कि वह किस एक गुट में शामिल हो, अगर साम्यवादी गुट में शामिल होने का निर्णय किया जाता है तो पूंजीवादी गुट नाराज होता है और अगर पूंजीवादी गुट में शामिल होने का निर्णय किया जाता है तो साम्यवादी गुट नाराज होता है, लेकिन भारत उस समय इस स्थिति में नहीं था कि वह विश्व महा शक्तियों को नाराज कर सके।  इसीलिए यह नेहरू के व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि भारत ने किसी गुट में शामिल न होकर एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने के लिए गुटों से अलग रहने की नीति को ही उचित समझा और यही नीति आगे चलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन का आधार बनता है।

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जनक थे पं.नेहरू 

यह पंडित जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व और विचारधारा ही का परिणाम था कि 1 सितंबर 1961 को गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना के साथ एक स्वतंत्र विदेश नीति की शुरुआत हुई आत्म निर्णय के अधिकार की शुरुआत हुई।  उसका पहला सम्मेलन युगोस्लाविया के बेलग्रेड में हुआ था।  ज्ञात हो कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन की तैयारी बैठक जून 1961 में काहिरा में हुई थी।  प्रतिवर्ष 1 सितंबर को गुटनिरपेक्ष आंदोलन दिवस के रूप में मनाया जाता है । गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद सन 1955 में बांडुंग नगर में जो कि इंडोनेशिया में है में रखी गई थी । जब मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो और भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनाय जाने के विचार और सिद्धांतों पर काम करने पर सहमति व्यक्त की थी।  इसलिए इनको गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जनक कहा जाता है।

  • मूल्यांकन

भारतीय विदेश नीति निर्माण में पंडित जवाहरलाल नेहरू के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वह भारतीय विदेश नीति के कर्णधार,विदेश नीति के निर्माता ,विदेश नीति के सूत्रधार कहलाते हैं । इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है।
आज की विदेश नीति पर पंडित नेहरू के दो प्रभाव महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।

(1) आत्म सम्मान की नीति 

(2)विचारधारा 

एक तरफ जहां विदेश नीति निर्माण में नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है, वहीं दूसरी ओर इसकी दो प्रमुख कमजोरियां बताई जाती रही है जैसे…

(1) यह केवल सिद्धांतों पर आधारित थी इस कारण भारत के स्थायी मित्र नहीं बन सके। 

(2) सिद्धांत पर आधारित होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा में आर्थिक विकास के साथ नहीं जुड़ सकें । 

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