विद्या ददाति विनियम …. केवल श्लोक नहीं वरन जीवन निर्वाह का सूत्र,संस्कृत का यह उद्धरण एक श्लोक नहीं वरन जीवन के क्रमिक निर्वाह की अवधारणा का एक सार सारगर्भित लेख है।बस जरूरत है पंक्तियों में छिपे गुढार्थ को समझने की जिसका तथ्यात्मक वर्णन संस्कृत ग्रंथ हितोपदेश में संकलित है।

विद्या-विनयशीलता- पात्रता-धन-सुख

यह जीवन का एक कर्मिक निर्वाह है जिसके आधार पर मानव अपनी जीवन यात्रा के पथ पर अग्रसर होता है।
विद्या से प्राप्त विनयशीलता की सार्थकता तभी सिद्ध हो पाती है जब बालक पात्रता हासिल करें बिना पात्रता के विद्या की प्राप्ति केवल औपचारिकता मात्र है इस पात्रता की जरूरत जीवन के हर पड़ाव में प्रदर्शित होती है ।
प्रस्तुत कथन इस बात की सार्थकता सिद्ध करता है की विद्या विनम्रता सिखाती है विनम्रता से पात्रता(योग्यता) ग्रहण होती हैं और इसी पात्रता से बालक अर्थाजन करता है और अंतत:भौतिक जीवन को सुखी बनाने का यत्न करता है।

व्यक्ति अक्सर सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए धनार्जन में जीवन को व्यतीत कर देता है।विद्वत जनों ने जीवन के बेहतर निर्माण के लिए सकारात्मक चरण बताए हैं जिसकी अनुपालना कई बार नहीं हो पाती है परिणामतः दुखद स्थितियां पैदा हो जाती है।जिसका सबसे बड़ा कारण अहम भाव है। अहम को त्यागने पर ही जीवन का वास्तविक ध्येय निश्चित हो पाता है । जहां अहम है वहां विनम्रता नहीं हो सकती और जहां विनम्रता नहीं वहां सुखी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। कवि बिहारी जी ने यही समझाने का प्रयास किया है की विनम्रता मानव के जीवन का सबसे बड़ा आभूषण है। जिसके बल मनुष्य अपने सुखी जीवन का निर्वाह करता है।

भौतिक सुख की चेष्टा में

कई बार अज्ञानतावश भौतिक सुख की चेष्टा में परिस्थितियों विपरीत कर जीवनक्रम को भूल जाता है परिणामत: भविष्य अंधकार के गर्त में चला जाता है
केवल तथ्यात्मक जानकारी विद्वता का प्रदर्शन नहीं है वरन उपयुक्त योग्यता जीवन के कर्मिक विकास को अग्रसर करने में सहायक है। विपरीत परिस्थितीया प्राप्त करने परिणाम कई बार दुखद होते है ऐसे में यह स्पष्ट है विनयशीलता से युक्त जीवन ही फलदायी है कवी बिहारी जी ने भी मनुष्य की महानता के पीछे उसकी विनम्रता को दर्शाते हुए कहा कि –

” नर कि अरु नल नीर की गति एकै करि जोई।
जे तो नीचे ह्वे चले ,तेतो ऊंचो होय।।”

मतलब यह है कि जब मनुष्य अपने अहम का त्याग कर विनयशीलता धारण करता है उसका मान – सम्मान ,यश ,कीर्ति उसी गति से बढ़ती है।विद्वान जनों के मत जीवन को बेहतर निर्माण करने की आधारशिला है बस बात इन पंक्तियों में छिपे गुढत्व को समझने की है।
अंततः यह पंक्तियां वापस दोहराता हूं जो जीवन निर्वाह का पथ प्रदर्शित करती है….

विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम्॥”।

डॉ.राम बाबू सोनी

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