हमारे गौरव ,शौर्य और स्वामीभक्ति की अमर कथाओ की  पर्याय हमारी धरा अपने आंचल में अनेक सभ्यताओं संस्कृतियों और इतिहास को  समेटे हुए हैं यह समय की गति ही कही जाएगी कि सभ्यता ,संस्कृति अध्यात्म और व्यापार के केंद्र के रूप में रहने वाले स्थान लुप्त हो चुके हैं या फिर खंडहर के रूप में अपनी गाथायें बयां कर रहे हैं जो अवशेष आज है उनकी उचित देखभाल और सारसंभाल के अभाव में अपने अस्तित्व  के लिये संघर्स कर रही है ।

    राजस्थान में  अजमेर एक ऐतिहासिक नगर रहा है यहां पर शाकंभरी के चौहानों  का शासन रहा था । कला संस्कृति शिक्षा ,सभ्यता और समृद्धि की बात करें तो यह क्षेत्र राजपूताने का स्वर्णिम काल रहा है।  इतिहास  सभ्यता संस्कृति,आध्यात्मिकता,  की बात करें तो अजमेर जिले के अंतिम छोर पर  ओर अजमेर से करीब 100 किलोमीटर दक्षिण पूर्व  दिशा की ओर बसा बघेरा जो इतिहास, आध्यत्मिकता, पौराणिकता, ओर पुरातात्विक महत्व रखता है। 

 बघेरा और पुरामहत्व


बघेरा पुरामहत्व का कस्बा रहा है आज का बघेरा जो कभी  बसंतपुर के नाम से जाना जाता था । इस कस्बे में जब भी मकान निर्माण के लिये खुदाई की जाती है तो अनेक  बहुमूल्य  सामग्री , मूर्तियां ,शिलालेख सिक्के, ताम्रपत्र, मृदभांड, मकानों के अवशेष,मिलते है  मानो पुरामहत्व की सामग्री और बघेरा का कोई गहरा नाता रहा हो ।ऐसी ही पुरामहत्व की सामग्री मूर्तिया आज अजमेर स्थित संग्रालय की शोभा बढ़ा रही है । अनेक इतिहासकारो की कलम से भी इसका बर्णन किया गया है । मानो ये पुरहत्व की सामग्री आज भी बघेरा का इतिहास खुद अपना इतिहास खुद ब खुद बयां कर रहे  हो । 

द्वापर काल और बघेरा का सम्बन्ध


 आज के बघेरा कस्बे का संबंध द्वापर काल से भी लगाया जा सकता है कस्बे में डाई नदी के किनारे मंदिर साधु संतों की समाधि प्राचीन बावरियों के अवशेष आज भी किसी आश्रम का अहसास सहज ही कर देते है  । व्याघ्रपदपुर महात्म्य अनुसार  इस टापू पर द्वापर काल मे व्याघ्रपाद ऋषि का आश्रम हुआ करता था जहाँ देश विदेश के आते थे । आज भी इस स्थान पर साधु संत निवास है ।  वराह सागर के तट पर एक ऊंचे टीले पर प्राचीन खंडर अवस्था में एक मंदिर के अवशेष अपना इतिहास खुद बयां कर रहे हैं बताया जाता है कि यहां कभी सनकादिक  ऋषि का आश्रम हुआ करता था ।  

पुराणों में  बघेरा का स्थान


  आज का बघेरा एक प्राचीन और ऐतिहासिक आध्यात्मिक स्थान रहा है इस कस्बे के बारे में स्कंद पुराण व  व्याघ्रपाद महात्म्य में  भी इसी बात का वर्णन किया गया है कि पुष्कर और जम्मू मार्ग पुष्कर से 13 गव्यति की दूरी  व्याघ्रपाद पुर नामक स्थान था   अगर वर्तमान में देखे तो अजमेर  जिले में आज का बघेरा ही इस वर्णन में खरा उतरता है  ।इसके अतिरिक्त बावन पुराण और भविष्य पुराण में भी इस कस्बे का स्पष्ट रूप से वर्णन मिलता है। बावन  पुराण के अनुसार महा वराह  स्वयं  दाविका नदी के किनारे पर निवास करते हैं चूंकि व्याघ्रपाद पुर नाम से इस कस्बे की स्थापना भी दाविका  नदी के किनारे पर ही की गई थी । अतः ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि के साथ-साथ आज का बघेरा   धार्मिक दृष्टि से भी अपनी एक अलग पहचान और महत्व रखता है ।  आज भी यहाँ अनेक मंदिर अपना इतिहास बयां कर रहे है ।

गुप्तकाल ओर बघेरा


गुप्त काल में भी व्याघ्रपुर नामक कस्बे का उल्लेख मिलता है समुंद्र गुप्त ने अपनी दिग्विजय के दौरान व्याघ्रराज को पराजित किया था इसका प्रमाण दिल्ली महरौली में स्थित लौह स्तंभ खुदी हुई समुंदर गुप्त की स्तुति से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता  है ।छठी शताब्दी में भी व्याघ्रपुर (आज का बघेरा) का अस्तित्व था इसका उल्लेख बाणभट्ट की आत्मकथा नामक पुस्तक के में भी स्पष्ट रूप से हैं अतः आज का बघेरा एक प्राचीन और एतिहासिक कस्बा रहा है । 

भृतहरि की तपोभूमि

   धर्म , आध्यत्म, इतिहास और पुराणों में अपना स्थान रखने वाला आज का यह बघेरा कस्बा ऋषि-मुनियों की तपोभूमि भी रही है । बताया जाता है कि उज्जैन के राजा भृतहरि के द्वारा वैराग्य धारण करने के पश्चात उन्होंने कुछ समय तक यहां पर  गुफा में तपस्या की थी जिसे आज की भृतहरि बाबा की गुफा के नाम से जाना जाता है । यह गुफा केकड़ी- टोडारायसिंह बाईपास मार्ग पर स्थित पहाड़ी में आज भी अवस्थित है यहां पर हवन कुंड, चरण पादुका(पगल्या) अपने अस्तित्व का परिचय दे रहे हैं । नाथ सम्प्रदाय क्व लोगो द्वारा पूजा पाठ की जाती है और साधु सन्यासी निवास कर्तव्य है ।  

बघेरा ओर पुष्कर का सम्बंध


धर्म आध्यत्म ओर तीर्थ राज पुष्कर ओर बघेरा का भी गहरा नाता रहा है । व्याघ्रपुरम महात्म्य  के अनुसार इस स्थान पर सर्वप्रथम पुष्कर के ब्राह्मणों ने एक शक्तिपीठ की स्थापना की थी जिसका स्थान 108 शक्तिपीठों में से एक हैं जो  दाविका नदी के तट पर होने के प्रमाण मिलते हैं । वर्तमान में इस शक्तिपीठ का नाम  ब्रह्माणी माता मंदिर के रूप में है जो की  केकड़ी-टोडा रायसिंह बाईपास पर पहाड़ी की तलहटी में स्थित है । बताया  जाता है कि इस शक्तिपीठ का संबंध तीर्थराज पुष्कर से प्राचीन समय से ही रहा है ।पुष्कर के ब्राह्मणों ने ही  माता के मंदिर की स्थापना की थी और यहीं पर पानी के लिए तलाई की खुदाई की गई थी इसका प्रमाण व्याघ्रपादपुरम में स्पष्ट रूप से मिलता है । आज भी उसे माता की तलाई के नाम  से  जाना जाता है  साथ ही यह भी बताया जाता है आज के  इस कस्बे का अस्तित्व महाभारत काल में भी रहा था ओर बाणभट्ट की आत्मकथा में भी इनका संकेत मिलता है । 

मेवाड़ के  इतिहास में बघेरा


बघेरा मेवाड़ राज्य का एक प्रमुख अंग रहा था तथा सवत 718 में मेवाड़ में भगवान वराह की  पूजा का विधान होने का उल्लेख है ओर  वहां के शासकों ने विभिन्न स्थानों पर भगवान वराह के भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया था जिसमें  सवत 718 में महाराणा अलठ द्वारा 1010 में वराह  मंदिरों का निर्माण का उल्लेख शिलालेखों द्वारा प्रमाणित होता है लेकिन वे  मंदिर वर्तमान  अस्तित्व में नहीं है समय के साथ-साथ नष्ट हो गए या उन्हें नष्ट कर दिया गया । अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी काल के दौरान बघेरा में भी भगवान वराह का भव्य मंदिर बनवाया होगा  । जिसमें उसे यहां-वहां बिखरे पड़े मिलते हैं इसी काल में आक्रांताओ के द्वारा अनेक मंदिर नष्ट कर दे गए या मूर्तियों को खंडित कर दिए गए उस समय किसी आक्रांता के यहां पहुंचने से पूर्व ही और वराह सागर में भूमि में दबा दिया गया होगा ।जिसे बाद में फिर से स्थापित कर दी गईं ।  ऐसे ही प्रक्रिया में जैन मंदिर के बारे में अपनाई गई होगी जो आज खुदाई के दौरान कस्बे में मिलती है । 


सन 918 के आस पास राजस्थान के लोक नायक अमर प्रेम ढोला मारू का विवाह हुआ था जिसका प्रमाण आज भी नगर के मध्य में स्थित कलात्मक तोरण द्वार ओर चावरिया  अपना अस्तित्व बयां कर रही है । ढोला-मारू के विवाह के समय बघेरा में सांवल दा  सिसोदिया का शासन था । 

बिजोलिया का शिलालेख और बघेरा


बिजोलिया जो कि आज भीलवाड़ा जिले में है  यह कस्बा इतिहास में अपनी अलग ही पहचान रखता है । एक शिलालेख के अनुसार यहां पर  दो भव्य व चंद्रमा के समान धवल जैन मंदिर स्थित थे  । आज भी कस्बे में खुदाई के दौरान अनेक जैन मूर्तियों के अवशेष प्राप्त होते हैं पहाड़ी पर भी प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष देखे जा सकते हैं आज बघेरा जैन अतिशय में गिना जाता है जहाँ सेकड़ो की संख्या में यात्री दर्शन करने आते है ,। कालांतर में इस कस्बे का वैभव  नष्ट हो गया तथा इसी काल में कुतुबुद्दीन से लेकर अलाउद्दीन खिलजी तक अनेक आक्रांताओ ने यहां पर आक्रमण कर यहां के वैभव को नष्ट कर दिया । 

समाज के कुछ दूर दृष्टि वाले लोगों ने बहुमूल्य मूर्तियों को सुरक्षित रखने व आक्रांताओं से बचाने की पहल करते हुए उन्हें आक्रमण से पूर्व ही धरती की कोख में छिपा दी जाती थी जो मूर्तियां छुपा भी न जा सकी आकांक्षाओं ने उन्हें नष्ट कर दिया आज भी उधर में खंडित हुए पौराणिक मूर्तियां प्राप्त होती है इससे इस कस्बे की भव्यता प्राचीनता संस्कृति सभ्यता आध्यात्मिकता आंकलन किया जा सकता है ।

व्याघ्रपुर से बघेरा की यात्रा 

व्याघ्रपाद पुर तथा वर्तमान में  बघेरा के निर्माण के बीच में इस कस्बे के अनेक नाम रहे । किवदंतियों के अनुसार इस कस्बे का इस काल के मध्य नाम बसंतपुर  था । वर्तमान बघेरा  की उत्पत्ति पुनः  जाने आबाद होने के संबंध में राव भाट तथा शिलालेखों के अनुसार अजमेर नगर के आसपास का घुँघरा गांव के लोग किसी राजा के आतंक से आतंकित होकर विशेषकर गुर्जर जाति के लोगों ने वहां से पलायन कर इस स्थान तक का सफर तय किया तथा उजड़े हुए कस्बे को फिर आबाद किया । बघेरा कस्बे की स्थापना आज से करीब करीब  500 वर्ष थी जिसका उल्लेख के मंदिर में लगे हुए शिलालेखों में प्राप्त होता ओर ये शिलालेख  17 ईसवी के हैं ।बघेरा शब्द संस्कृत के शब्द व्याघ्रपुर का ही हिंदी रूपांतरण है।

चितौड़ का कीर्ति स्तम्भ ओर बघेरा


चूंकि इस कस्बे का संबंध मेवाड रियासत  से भी रहा है  चित्तौड़गढ़ के किले में स्थित कीर्ति स्तंभ के निर्माण में भी बघेरा  का नाम आता है  । इसका निर्माण बघेरवाल महाजन जाति के व्यक्ति जीजा शाह ने करवाया था । इस पर कुंभा द्वारा लिखाई गई स्तूति  के अनुसार कुंभा ने विष्णु के निमित्त उजड़े हुए बसंतपुर को फिर से बसाया तथा 7 तालाबों का निर्माण करवाए  गए ।  वर्तमान समय में देखा जाए तो यह देखा जाये तो ये सात तालाब आज भी बघेरा में अवस्थित है  ओर इस कस्बे के नाम भी बसंतपुर भी रहा है ,। बसंतपुर  कस्बा अधिक दिनों तक आबाद नहीं रहा है  इस कस्बे के उजड़ने ओर फिर से  बसने के क्रम में आज का बघेरा ही है । 


कस्बे में स्थित शूर वराह  मंदिर ,ओर सूरज जी का मंदिर जिसे गोपाल जी का मंदिर भी कहा जाता है  में उपलब्ध शिलालेखों तथा ताम्रपत्र के अनुसार यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है तथा वर्तमान वराह मंदिर में वराह की प्रतिमा की स्थापना के बारे में भी विशेष रूप से उल्लेख मिलता है ।  इतिहासकार गौरीशंकर  हीराचंद ओझा की पुस्तक के अनुसार मंदिर का निर्माण जो कि पुनःनिर्माण था वह वहां की प्रतिमा की स्थापना मेवाड़ के बेगू राजा मेघ सिंह ने मूर्ति को वराह  सागर से निकालकर विक्रम संवत 1665 -1685 में मध्य  मेघ सिंह ने  की थी ।

मराठा और बघेरा का संबंध

बघेरा कस्बे का संबंध मराठों से भी रहा है बताया जाता है कि 1828 के आसपास इस कस्बे पर मराठों का अधिकार रहा था और इसी काल में मराठा सरदार तात्या में यहां पर एक के मंदिर का निर्माण करवाया था जिसे  तांत्या जी का मंदिर भी कहा जाता था आज उसे छैल बिहारी मंदिर के नाम से जाना जाता है।

इसके अतिरिक्त मराठा सरदार तात्या ने यहां पर एक हवेली  का निर्माण करवाया था जिसे तांत्या जी की हवेली नाम से जाना जाता है हालांकि आज ये हवेली अपने मूल स्वरूप में नही है केवल अवशेष मात्र बचे है । भाट वे चारणों की पुस्तकों के अनुसार बघेरा और मराठों का संबंध भी प्रमाणित होता है । बघेरा के राठौड़ वंश और मराठों के बीच युद्ध की गाथा चरणों की पुस्तक में लिखित है  ।  युद्ध में राठौड़ वंश के वीर योद्धाओं की वीरगति हुई और उनकी स्मृति में कलात्मक छतरियां कस्बे में आज भी अपना इतिहास बता रही है  ।

कण-कण में इसके आध्यात्म छुपा है ,हर एक कण में पूरा इतिहास छुपा है          

 छुपा है हर जुबां पर इसका गुणगान,हर सांस में छुपा  इसका स्वाभिमान है,


 आज का यह  बघेरा कभी  अपनी ऐतिहासिकता अपनी पौराणिकता ओर  अपनी आध्यात्मिकता के कारण जाना जाता था  न जाने कितने राज धरती की कोख में ही दफन हो गये तथा खोज खुदाई और अन्वेषण के अभाव में इस गांव से जुडे  इतिहास से दुनिया परिचित नहीं हुई । यह कस्बे का दुर्भाग्य कहा जाए या गांव की और इतिहास की उपेक्षा की धर्म, इतिहास, पौराणिक ,ओर पुरातात्विक महत्व के यह कस्बा दुनिया मे अपना स्थान खोजने को मजबुर है इतिहासिक महत्व की इमारते,स्मारक अपने अस्तित्व की लडाई खुद ही लड़ने को मजबूर है .। 

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