आर्य समाज के संस्थापक एवं ” वेदों की ओर लौटो” जैसा नारा देने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती जिनका मूल नाम “मूल शंकर” है। बालक मूल शंकर के मन में वैराग्य के भाव को देखते हुए उन्होंने उनके पिता ने उनका विवाह करने की योजना बनाई जिससे बचने के लिए 19 वर्ष की आयु में मूल शंकर घर से भाग गए और गुरु की खोज में निकल पड़े।
1845 से लेकर लगभग 15 वर्षों (1960) की अवधि तक वह देश के कई कोनो में भ्रमण किया और गुरु की खोज में रहे और अंत में जाकर उनको उनको गुरु की खोज पूरी हुई।
पहले गुरु जिन्होने दयानंद सरस्वती नाम दिया
24 वर्ष की आयु में उनकी मुलाकात सर्वप्रथम स्वामी पूर्णानंद से हुई और उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली, उन्होंने ही मूल शंकर को दयानंद सरस्वती जैसा नाम दिया था । लेकिन उन्होंने दयानंद को अपने शिष्य के पास भेज दिया जो आगे चल कर उनके दूसरे गुरु बने।
दयानंद सरस्वती के दूसरे गुरु
स्वामी पूर्णानंद जी दयानंद सरस्वती की प्रतिभा से प्रभावित थे लेकिन स्वयं की व्यस्तता के कारण और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित क्रांतिकारी योगियों के गुप्त संगठन में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण उन्होने दयानंद को निर्देश दिया कि वे उनके(स्वामी पूर्णानंद ) शिष्य मथुरावासी सन्यासी स्वामी विरजा नंद के आश्रम पहुंचकर शिक्षा ग्रहण करें यही इनके दूसरे गुरु बने जिनके पास स्वामी दयानंद सरस्वती ने लगभग तीन वर्ष शिक्षा ग्रहण की।
इस जवाब से गुरु प्रभावित हुए गुरु
मथुरा पहुंचकर एक नेत्रहींन सन्यासी जिनका नाम स्वामी विरजानंद है के निवास पहुंचे वहां पर जाकर उन्होंने गुरु के आश्रम का दरवाजा खटखटाया तो अंदर से गुरु ने कहा की कौन हो स्वामी मूल शंकर ने इस जवाब का इस सवाल का जवाब देते हुए कहा “मैं कौन हूं यही तो जानने के लिए मैं आपके पास आया हूं” जवाब सुनकर गुरु खुश हुए और एहसास किया कि उनका शिष्य मिल गया है और उन्होंने मूल शंकर को अपना गुरु अपना शिष्य स्वीकार कर लिया ।
ध्यातव्य: 14 नवंबर 1860 को उन्होंने गुरुजी गुरु विरजानंद के सम्मुख दीक्षा ग्रहण कर ली ।
लगभग 3 से 4 वर्ष तक गुरु के चरणों में रहकर उन्होंने दीक्षा प्राप्त की,ज्ञानार्जन प्राप्त किया और अंतिम में 1863 में वह गुरु की आज्ञा के अनुसार वेदों के प्रचार प्रसार एवं धर्म उपदेश देने के लिए निकल पड़े।