स्वामी दयानंद सरस्वती जिनके बचपन का नाम मूल शंकर था उनका जन्म आधुनिक गुजरात के काठियावाड़ में मोरबी देसी रियासत के एक छोटे से गांव टंकारा में पिता अंबा शंकर के घर एक ब्राह्मण परिवार में सन को हुआ था।
परंपरावादी परिवारजन, माता पिता, बालक मूलशंकर से अपेक्षा करते थे कि वह भी धार्मिक और पारिवारिक संस्कारों को अपनाएं लेकिन मूलशंकर स्वभाव से जिज्ञासु थे उन्होंने विवेकहीन परंपराओं किया।
- एक घटना ने बदला उनके जीवन की दशा और दिशा को
कहा भी जाता है कि इंसान के जीवन में घटित एक छोटी सी घटना जीवन की दशा और दिशा को परिवर्तित कर देती हैं बालक मूल शंकर के जीवन में भी उनकी उम्र लगभग 14 वर्ष की थी उनके जीवन में एक घटना घटती है ।
महाशिवरात्रि के दिन सभी परिवारजनों की तरह बालक मूल शंकर ने भी उपवास रखा और देर रात तक रात्रि जागरण में शामिल होकर धार्मिक कार्य में अपनी सहभागिता निभाई। परिवार के सभी सदस्यों के सो जाने के बाद भी बालक मूल शंकर के मन में जिज्ञासा थी और वो जागते रहे। मध्य रात्रि को जब उन्होंने देखा कि कुछ चूहे शिवलिंग पर उछल कूद कर रहे थे और पूजा पाठ में चढ़ाए गए प्रसाद,मिष्ठान ,फल,फूल को बड़े मजे के साथ खा रहे थे । यह सब देखकर उनके मन में मूर्ति पूजा के प्रति जो श्रद्धाभाव था वह पल भर भी खत्म हो गया और मन में भाव आए कि जो ईश्वर जो प्रतिमा अपनी स्वयं की रक्षा नहीं कर सकती वह दूसरों की रक्षा क्या करेगी । यह सब कुछ देख उनके मन में मूर्ति पूजा की निरर्थकता का ज्ञान हुआ। बालक मूल शंकर सुबह जब अपने पिता से जिज्ञासा वश इस बारे में सब कुछ जानना चाहा तो पिता ने परिहास में कह दिया की वास्तविक शिव हिमालय में रहते हैं तो बालक मूल शंकर के मन में शिव के प्रत्यक्ष दर्शन करने की जिज्ञाशा उत्पन्न हुई और चल पड़े शिव की खोज में।
- विवाह से बचने के लिए त्याग दिया अपना घर
इस घटना के अतिरिक्त उनके परिवार में उनके चाचा व उनकी बहन की असंयिक मृत्यु होने की घटना से उन्हें बहुत आघात पहुंचा परिणामस्वरूप उनके मन में वैराग्य के भाव उत्पन हो गए । परिवार जनों ने स्थिति को संभालते हुए उनका विवाह करना चाहा बालक मूल शंकर ने परिवारजनों की यह चर्चा सुनी और घर छोड़कर चले गए।
- मूल शंकर खुद हुए पाखंड के शिकार
घर त्याग कर जब वास्तविक शिव की खोज में वो हिमालय के विभिन्न धार्मिक स्थलों की यात्रा पर थे तो उन्हें भी कई प्रकार के धार्मिक पाखंडो का सामना करना पड़ा। यहां तक की उनकी देवी के सामने बलि देने का प्रयास भी किया गया, लेकिन वहां से वह भागने में सफल हुए। इससे उनके मन में पाखंडों के खिलाफ लड़ने का दृढ़ निश्चय और पका हो गया और चल पड़े अपनी यात्रा पर।
- एक नहीं बल्कि दो गुरु थे दयानंद सरस्वती के
अपनी यात्रा के दौरान उन्हें उनके पहले गुरु पूर्णानंद जिन्हें संपूर्णानंद भी कहा जाता है से दीक्षा ग्रहण की और इन्होंने ही मूल शंकर को दयानंद का नाम दिया। इसके अतिरिक्त उनके दूसरे गुरु स्वामी विरजानंद थे जो कि पूर्णानंद के शिष्य थे तथा आंखों से अंधे थे।
जब दयानंद सरस्वती अपने दूसरे गुरु स्वामी विद्यानंद से पहली बार मुलाकात करने गए तब गुरु विरजानंद ने पूछा कि कौन हो तब सहजतापूर्वक दयानंद सरस्वती ने यह उत्तर दिया कि यही तो जानने के लिए मैं आपके पास आया हूं । इस वाक्य से स्वामी विरजानंद बहुत प्रभावित हुए और सहजतापूर्वक उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।
- विरजानंद से ग्रहण किया वैदिक ज्ञान
स्वामी विरजानंद जो खुद वैदिक संस्कृत /व्याकरण के महान विद्वान थे । इनका प्रभाव स्वामी दयानंद के व्यक्तित्व अत्यधिक देखने को मिलता है। इन्हीं के निर्देश से इन्होंने वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार का रास्ता चुना और यह नारा दिया कि वेदों की ओर लौट चलो।
- आर्य समाज की स्थापना और दयानंद सरस्वती
स्वामी दयानंद सरस्वती ने वैदिक ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए और अपने गुरु को दिए गए वचन को ध्यान में रखते हुए मुंबई में 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की तथा इसके अतिरिक्त की इसकी दूसरी शाखा लाहौर में सन 1877 में स्थापित की।
- राजस्थान से था दयानंद का विशेष संबंध
स्वामी दयानंद सरस्वती का राजस्थान से विशेष नाता रहा है। राजस्थान की कई राजपूत रियासतों के राजा/ महाराजा उनके विशेष भक्त थे। जिनमे शाहपुरा के राव नाहर सिंह, उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह तथा जोधपुर की महाराजा जसवंत सिंह इस श्रेणी में विशेष शिष्य थे।
- जोधपुर प्रवास के दौरान उन्हें जहर दिया था ।
सन 1883 में जब स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर प्रवास पर थे तब उन्होंने देखा कि जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह एक गणिका जिनका नाम नन्ही बाई था की आसकती थे और अपने राज कार्य और आज कर्तव्य से विमुख हो रहे थे, तब उन्होंने महाराजा जसवंत सिंह को समझाया लेकिन यह बात गणिका नन्ही बाई को बुरी लगी इस कारण स्वामी दयानंद के रसोईया जिनका नाम जगन्नाथ था के सहयोग से उन्हें दूध पर विष तथा कांच के टुकड़े पीसकर पिला दिया गया।ज्ञात हो कि जानकारी के अनुसार इससे पूर्व भी लगभग 16 बार उन्हें विषपान कराया गया लेकिन अपने योग क्रिया के बल पर वह विष के प्रभाव को खत्म कर देते थे लेकिन इस बार दूध में जहर के साथ कांच के टुकड़े होने की वजह से वो इसके प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा पाए और तबीयत अत्यधिक खराब होने के कारण उनको इलाज के लिए अजमेर लाया गया जहां 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन उनकी मृत्यु हो गई।
- स्वामी दयानंद के द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ
स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल उद्देश्य वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करना था। धर्म में पनप रहे विभिन्न प्रखंडों को मिटाना था । इसी क्रम में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की जिनमें सत्यार्थ प्रकाश, श्रृग वेदादीभाष्य भूमिका विशेष थे । इसके अतिरिक्त वेदांग प्रकाश, पंच महायज्ञ विधि, गो करुणानिधि, व्यवहार भानु, वैदिक मनुस्मृति आदि थे।