बड़ी सीधी साधी पर कमाल की रूपसी थी वो ,
बिन शृंगार ही जन्नत की हूर लगती थी वो!!१
कतरा भर पढा था उसकी कातिल निगाहों को ,
नश्तर सी चुभन दोधारी शमशीर सी थी वो!२
उसका हर इक लफ्ज़ ख़ुदा की रुबाई सा था ,
बिना कोई पन्ना खोले पढ़ी किताब थी वो३!
पूछते है लोग मुझसे कैसी होती मोहब्बत,
अनमोल शब्दों से परे कमसिन बेनजीर थी वो ४!
मुझसे इश्क़ की बातें करती हँसती मुस्कुराती,
तिरछी चितवन बिन खंजर क़ातिल हसीना थी वो!५!
बदन की खुशबू कस्तूरीमृग सी थी उसकी,
नदी तरंग सी हवा के झोंके से मचलती थी वो६!
कंज कली न सही पर शबनम की बूंद सी थी वो,
अनपढ़ सही पर इश्क की पूरी किताब थी वो!७
क़ातिल निगाहे छलकती उसकी मोहब्बत में ,
एक अथाह दरिया का खुद सैलाब थी वो!८!
खामोशी ऐसी की गमोंखुशी जाया नही करती,
रूबरू न सही ख्वाबों में रोज मिलती थी वो!९
- मौलिक सृजन गोविन्द नारायण शर्मा ,सिंधोलियाँ