@ गोविन्द नारायण शर्मा
वो जंगल से लकड़ियाँ बेचकर घर चलाती हैं,
पालने को बच्चे मालिक की चक्की चलाती हैं !
छाले पड़े हाथों से लकड़ियाँ काटने जाती है ,
बूढ़े कन्धों पर जुआ रखकर हल चलाती हैं !
अपना खेत नही जोतने को मजदूरी करती हैं,
वो भूख मिटाने को मुफ़लिसी में घर चलाती हैं !
सियासत अमीर जादो की कोठी बनवाने को,
गरीब की झोंपडी पर बुलडोजर चलाती हैं !
चिथडे पहनकर बेआबरू होने से बचती हैं,
खुदा के रहमो करम पर जीवन चलाती हैं !
दूध मुँहे बच्चे को बाँध सीने पर जंग लड़ती हैं!
वो सूखी लकड़ियों का पहन किरीट गर्वित हैं!
खूब लड़ी मर्दानी हम सबने आँखों देखी हैं,
वो मेहनत कश होकर भी एक मजदूरिन हैं!