@ गोविन्द नारायण शर्मा
तंग गलियां तन पे बेहया लिबास देख रहा हूँ ,
सच जमाना बदल गया आँखों देख रहा हूं !
प्यासी नदियां बिलखती नग जमी दोख हुए ,
मधुवन में दावानल सुलगती आंखों देख रहा हूँ !
अब जलधर बरसात में जहर बरसा रहा हैं ,
रीते ताल तलैया बंजर भू आंखों देख रहा हूँ !
घटते जंगल लता गुल्म वृक्ष कृन्दन कर रहे ,
नृशंस नर प्रकृति लीलता आंखों देख रहा हूँ !
नारी कन्या भ्रूण गर्भ में कत्ल करवा रही है ,
बिन ब्याहे कामुक गिद्धों को आंखों देख रहा हूँ !
गमजादों की भीड़ मधुशाला पर जम रही हैं,
दूध मलाई की थड़ी वीरान आंखों देख रहा हूँ !
रिश्वत में अबलाओं की अस्मत मांगी जाती,
दहेज में जलती नववधू आंखों देख रहा हूँ !
कोठी बंगले वाले श्वानों को दूध पिला रहे हैं,
बूढ़े माता पिता वृद्धाश्रमों में आंखों देख रहा हूँ !