खत नही वो लब्ज़ हैं जुबां जो कह न सकी,
कली जो फूल बसन्त का कभी बन न सकी!
वो सिसकियां नही सांसे हैं मेरी जो मरी नही,
कच्ची कली न तोड़ महक नशीली बनी नही !
जिन्दगी की शब हो गयी तेरी रुसवाईयों में,
हँसीं ख़्वाब मुकम्मल न हुए तेरी बेवफाई में !
इक अरसे से ही सही तेरी नजर इनायत हुई ,
मेरी मय्यत के जनाने में तेरी दीदार नसीब हुई !
उम्र भर की बात बिगड़ी इक जरा सी बात में,
इक लम्हा तमाम कमाई खा गया साफ़गोई में!
आँखों के नीचे स्याह जो काले घेरे बताते हैं,
होंठों पर जो मुस्कान बिखरी है शफा झूठी है!
वो खफ़ा थी मुझसे फिर भी दिल बेकरार था,
जब हुई शब दीया जला हिज्र में इंतजार था!
@ गोविन्द नारायण शर्मा