@ गोविन्द नारायण शर्मा

तेरे अक्ष से निकले हर अश्क को हलक में उतार लिया ,
ज्यों समुद्र मन्थन से निकले गरल को शम्भू ने पी लिया !

खुली अलकों से टपकती बुन्दे बारिश सी लगती हैं ,
तेरे लरजते होंठों से निकले लब्ज़ शायरी लगती हैं !

तेरी पायल की छन छन मानो बारिश की रागिनी हो ,
कंचन सी बलखाती तेरी देह मानो तड़ित सी तरंग हो !

तेरे गोरे रुखसार पर ये काला तिल दिठौना लगता हैं,
ये चाँद से मुखड़े पर सालिगराम का बिछोना लगता हैं !

तेरे लबों की मुस्कान भोर में खिली कलियों सी लगती हैं,
तेरे फेनिल चमकते रदन मानो सीप में मोती लगते है !

तू स्वाति नक्षत्र की बदली सी पीयूष बून्द हो ,
प्यासे पपीहे की तुम प्राणेश्वरी जीवन धन हो !

खुली बहकी जुल्फ़ों को यूँ न बिखेर चहरे पर,
चाँद से मुखड़े पर श्याम घटाओ का साया लगती हैं !

कमर पर लहराती बेणी काली नागिन लगती है ,
तेरी कलाई कमलिनी नाल सी नाजुक लगती है।

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