@ गोविन्द नारायण शर्मा


भोर भई चमका पूरब दिशि में शुक्र तारा,
पखेरुओ ने आंखे खोली छोड़ा रेन बसेरा!

आपस में बतियाते सुबह सुबह दो परिन्दे ,
इंसान हो गये कितने बेशर्म निर्दयी दरिन्दे!

जेठ मास तपती धरती प्यासे मरते परिन्दे,
कहीँ नही डाली पर जीवो के पानी परिण्डे !

नजर में दूर तक दिखता सहरा पसरा हुआ,
चुग्गे का दर्शन नभ में उड़ते पंछी को न हुआ!

मृगमरीचिका सरपट भागे तपती घाम में,
भटके भूख से व्याकुल परिन्दें रेगिस्तान में !

घरों में गौरेया चिड़िया फुदका करती थी,
दिखती नही यह नन्ही परी भोली पखेरू!

बच्चें बनाते थे घरों में पंछियों के घोंसले,
अब मकानों की मुँडेर अंडे नही देते परिन्दे!

घट गये उपवन और कमल खिले सरोवर,
कमलिनी नही रही पखेरु कैसे करे बसर !

गाँव उजड़ गये सब ओर छायी विरानी,
कहीं छाया पानी बंदोबस्त पंछी को नही,

पीपल तरुवर की हरीभरी शाख रही नही ,
किस डाली पे बैठ राग मघुर गाये पखेरू!

कोयल किस कुञ्जन में बोले मीठी बाणी,
पंछी को छाया चुग्गा नही पिबन को पाणी !

दम तोड़ते मूक पंछियों पे तरस दिखाओ,
हरीभरी धरती होवे दरख़्त खूब उगाओ!

न्याय प्रिय नीरक्षीर विवेकी पंछी योगी का,
ताल रीत गए कैसे बचे वंश हंस हंसनी का!

सीखो दूध का दूध पानी का पानी करना!
ठाना शिवि ने पंछी हेतु तन तुला पे रखना!

या बिनती गोविन्द कर जोर सब इंसाँ से करे
बिन दाने पानी प्राण पखेरू न किसी के उड़े !


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