@गोविंद नारायण शर्मा
अगर मैं बेवक्त बोल जाता ख़ताये तुम्हारी,
जीती हुई बाजी हार जाता यही समझदारी!
जज्बातों पर आंच आये तो बोलना चाहिए, कब कहाँ कैसा लहजा हो ये आना चाहिए!
खत में उकेरेअल्फ़ाज़ सिर्फ़ जज्बात नही हैं,
रूह में बसा साया हूँ जरा खत जला के देख!
बड़ी आरजू थी मेरी शहर में घर बनाने की!
गाँव वाला पुश्तेनी घर भी गया हिस्सेदारी में!
वो न जाने किन मजबूरियों में छोड़ गया मुझे,
बेवफा न था उससे कोई शिकायते नही मुझे!
खेलने दो औलाद को फिर ये दिन नही आते,
पत्ते जो टूटे डाली से फिर मिलने नही आते!
तालीम तो एक बहाना फ़क़त परवाज का,
हर लम्हा याद टूटे पत्ते की कांपती शाख का।