देश में 19वीं शताब्दी में हुए विभिन्न समाज सुधारको जिन्होंने अपने प्रयासों से समाज मे सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में सुधारो के लिए नए विचारों का संचार किया, समाज को नई राह दिखाई,उनमें से स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अग्रणी रूप से लिया जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे।
- जीवन परिचय
मूल शंकर जिसे आज स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से जाना और पहचाना जाता है उनका जन्म 24 फरवरी 1824 ( फाल्गुन कृष्ण दशमी संवत 1880) को गुजरात के काठियावाड के तत्कालीन समय की देसी रियासत मोरवी के एक छोटे से गांव टंकारा में पिता अंबा शंकर और माता यशोदा देवी के घर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ज्ञात हो कि कुछ जगह उनके पिता का नाम कृष्ण जी लालजी तिवारी बताया जाता है जो कर विभाग में कलेक्टर के पद पर सेवारत थे
- इस घटना ने बदल दिया जीवन की दशा और दिशा
व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसी कई घटनाएं घट जाती है जिससे उनके जीवन की दशा और दिशा ही परिवर्तित हो जाती है। मूल शंकर के जीवन में भी एक ऐसी ही घटना घटित होती है। मूलशंकर ने 14 वर्ष की आयु में परिवार वालों का अनुसरण करते हुए महाशिवरात्रि का व्रत रखा । शिव की पूजा पाठ की इसके पश्चात जिज्ञासु मूल शंकर भी शिव प्रतिमा के पास बैठकर कुछ जानने की जिज्ञासा कर रहे थे तभी उन्होंने देखा कि कुछ चूहे उछल कूद करते हुए शिव मूर्ति पर चढ़ाए गए प्रसाद को खा रहे थे । यह सब कुछ देखकर मूल शंकर के मन में मूर्ति पूजा के प्रति जो श्रद्धा भाव था कहीं मानो गुम सा हो गया हो। मूर्ति पूजा पर उनका विश्वास लगभग खत्म को गया था।
हर परिवार के मुखिया यह चाहते हैं कि उनके बच्चे परिवार के संस्कारों और परंपराओं को स्वीकार करें, अपनाये लेकिन मूल शंकर इन सब से अलग हटकर थे वह बिना किसी तर्क- वितर्क के परंपराओं को स्वीकार करने में विश्वास नहीं करते थे । इसी बात को लेकर पिता से उनकी अनबन हो जाया करती थी इसी के चलते उन्होंने घर छोड़ दिया और चल पड़े थे अपने हृदय में वैराग्य का भाव लेकर सत्य की खोज में।
- इन्होंने दिया मूल शंकर को दयानंद सरस्वती नाम
मन मे वैराग्य के भाव लेकर घर से चले जाने के बाद मूलशंकर (दयानंद सरस्वती ) को समाज में ऐसी अनेक विवेकहीन परंपराओं का सामना करना पड़ा था एक बार तो उनकी बलि तक देने जैसे घटना का सामना कर अपनी जान बचाकर भागना पड़ा । गुरु की खोज में निकले के बाद मूल शंकर ने अपनी 24 वर्ष की आयु में स्वामी पूर्णानंद से संन्यास की दीक्षा ली। ज्ञात हो कि इन्होंने ही मूल शंकर को दयानंद सरस्वती का नाम दिया लेकिन दयानंद सरस्वती की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी और उन्होंने स्वामी विरजानंद से शिक्षा ग्रहण की जो वैदिक संस्कृत के महान ज्ञाता और विद्वान थे।
लगभग 3 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद गुरु आज्ञा से वेदों का प्रचार पसार करने के लिए निकल पड़े। इसी प्रचार प्रसार के दौरान उन्होंने “वेदों की ओर लौटो” जैसा प्रसिद्ध नारा दिया था। उनका प्रयास था कि लोग वेदों के ज्ञान को पुनः स्थापित करें और प्राचीन समय मे जो गौरव और सम्मान भारत को प्राप्त था वह फिर से लौट आये।
- आर्य समाज की स्थापना और दयानंद सरस्वती
गुरु विरजानंद के आदेशानुसार वेदों के ज्ञान को पुनर्स्थापित करने के प्रयासरत रहे । भारतीय समाज मे धार्मिक व समाजिक परंपराएं और अविद्या का जो अंधकार था उसको मिटाने ,वैदिक ज्ञान के स्थाई प्रसार करने के उद्देश्य से उन्होंने 10 अप्रैल 1875 को अपने मुंबई प्रवास के दौरान डॉक्टर मानिक चंद्र जी की वाटिका (चिरगांव) में आर्य समाज की स्थापना की ।
दो वर्षों के उपरांत आगे चलकर 1877 में लाहौर में इसकी दूसरी शाखा स्थापित की। लाहौर में आर्य समाज के दूसरी शाखा स्थापित होने के साथ ही आर्य समाज की मान्यताओं, उद्देश्यों का एक विधान तैयार किया गागा । इस विधान के आधार पर देश के अलग-अलग भागों में आर्य समाज के अलग-अलग शाखाएं स्थापित हुई ।
- महाराजा जसवंत सिंह और दयानंद सरस्वती
भारत भ्रमण और वैदिक ज्ञान के प्रचार प्रसार के दौरान स्वामी दयानंद सरस्वती ने देशी रियासतों में समाज में प्रचार प्रसार पर विशेष ध्यान दिया गया । इसी क्रम में राजस्थान की शाहपुरा के नाहर सिंह उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह के साथ जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह भी उसके विशेष अनुयायी हो गये थे ।
सन 1886 में जब दयानंद सरस्वती राजस्थान आए तो जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के आग्रह पर वह जोधपुर गए। वहां उन्होंने देखा कि जसवंत सिंह अपने राज कार्यों पर ध्यान न देकर एक नन्ही बाई जिसे नन्ही जान भी कहा जाता है नामक गणिका/वैश्या के प्रति आसक्त हैं तो उन्होंने महाराजा को समझाया और अपने राजकार्य पर ध्यान देने का परामर्श दिया। इससे नन्ही बाई नाराज हुई और किसी न किसी प्रकार से उन से पीछा छुड़ाने की योजना बनाने लगी।
- इस महिला ने की थी दयानंद की हत्या
1883 के जोधपुर प्रवास के दौरान दयानंद सरस्वती ने महाराजा जसवंत सिंह और गणिका नन्ही बाई के आपसी व्यवहार को देखकर समझाइश की थी,इससे नाराज होकर गणिका नन्हीं बाई ने स्वामी दयानंद सरस्वती के रसोइए जगन्नाथ के साथ मिलकर दूध में विष व कांच के टुकड़े मिलाकर पिला दिया जिससे उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती गई । इलाज के लिए उन्हें अजमेर लाया गया लेकिन दीपावली के दिन 30 अक्टूबर 1886 को अजमेर में उनकी मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि स्वामी जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने अनुयायियों को इच्छा जाहिर की थी कि उनकी कोई समाधान नहीं बनाये। इसी इच्छा के तहत उनकी कोई समाधि नहीं बना कर उनकी राख को खेत में बिखेर दिया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तके और ग्रंथ
स्वामी दयानंद सरस्वती ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए कलम को भी सहारा बनाया और अपने जीवन काल में अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ ग्रंथ महत्वपूर्ण है। राजनीतिक दृष्टिकोण से भी सत्यार्थ प्रकाश और ऋगवेदादिभाष्य भूमिका जैसे ग्रन्थ विशेष महत्व रखते हैं।
सत्यार्थ प्रकाश,संस्कार विधि,सत्यधर्म विचार ,वेदांग प्रकाश ,पंच महायज्ञ विधि ,काशी शास्त्रार्थ ,गो करुणानिधि ,व्यवहारभानु ,संस्कृत वाक्य प्रबोध,वेदांतध्वंती निवारण ,अष्टाध्यायी भाषा ,आर्याभीविनय,आदि।
- आधुनिक समाज के महान चिंतक के रूप में
स्वामी दयानंद सरस्वती की गिनती आधुनिक समाज के महान चिंतक के रूप में अग्रणी आती है। उन्होंने समाज के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्र में सुधार के लिए अपने अमूल्य सुझाव देककर अपना योगदान दिया है। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में वैदिक प्रचार प्रसार पर बल दिया और यह सिद्ध करने की कोशिश की कि वेद ईश्वर कृत ग्रंथ है । इसके अतिरिक्त एकेश्वरवाद में विश्वास, हिंदू धर्म की अबौद्धिक मान्यताओं का विरोध, मूर्ति पूजा का खंडन, धर्म परिवर्तन का विरोध जैसे विचार दिए । उन्होंने शुद्धि आंदोलन की शुरुआत कर उन सभी पुराने हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म अपनाने का अवसर देने का समर्थन किया जिससे अन्य धर्मों के अनुयायियों से उनके विवाद हुए।
दयानंद सरस्वती सामाजिक क्षेत्र में भी परंपरागत जाति व्यवस्था के विरोधी थे, सामाजिक कुरीतियां और अंधविश्वासों के पूर्णतया विरोधी थे । इसके अतिरिक्त दयानंद बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहु विवाह जैसी कुप्रथाओ को समाज से मिटाने के पक्षधर थे।
दयानंद सरस्वती व्यक्ति के सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक विकास के लिए शिक्षा को अति आवश्यक और अनिवार्य शर्त मानते थे। उन्होंने महिला शिक्षा और गुरुकल शिक्षा प्रणाली का समर्थन भी किया।
- स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती 2023 कब है ?
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 24 फरवरी 1824 को हुआ था । हिंदू पंचांग के दृष्टिकोण से उस दिन” फाल्गुन कृष्ण दशमी संवत 1880″ का दिन था । इसीलिए प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्ण दशमी को स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती के रूप में मनाया जाता है । सन 2023 में यह जयंती 12 फरवरी 2023 को है । ज्ञात हो कि गुजरात के टंकारा नामक स्थान के साथ-साथ उनका अजमेर से भी बड़ा गहरा नाता रहा है । यही कारण है कि आज भी अजमेर में उनके नाम से अनेक शिक्षण संस्थाएं व जगह के नाम है।