एक समय था जब भजन संध्याएं आध्यात्मिक शांति, भक्ति और आत्मसाक्षात्कार का माध्यम मानी जाती थीं। मगर बीते कुछ समय से इस पवित्र परंपरा में एक विचित्र और निंदनीय बदलाव देखा जा रहा है। अब मंदिरों, भंडारों या अन्य धार्मिक आयोजनों की भजन संध्याओं में भक्तिरस के नाम पर डांसरों के नृत्य को प्रमुख आकर्षण बना दिया गया है।

ऐसे आयोजनों में “श्रद्धा” की जगह “तमाशा”, “सादगी” की जगह “प्रदर्शन”, और “शालीनता” की जगह “उत्सवधर्मिता” ने ले ली है। मंच पर आधुनिक वेशभूषा में नृत्य करती महिलाएं, हाथ में नोट उड़ाते आयोजक, और भीड़ की तालियां – क्या यही है भक्ति का रूप?भजन संध्या जैसे पावन मंचों पर जब…… की झलक दिखने लगे तो यह न केवल धार्मिक भावना का अपमान है, बल्कि समाज के सांस्कृतिक पतन की चेतावनी भी है।

भक्ति की जगह दिखावा:

इन आयोजनों में अब न भजन की आत्मा बची है, न ही भक्तों का भाव। बर्तन भर-भर कर डांसरों पर पैसे उड़ाना, रातभर लाउडस्पीकर पर तेज ध्वनि में गीत-नृत्य, और आयोजकों द्वारा भीड़ जुटाने के लिए केवल डांसरों पर निर्भर रहना – यह सब दर्शाता है कि भजन संध्या अब महज “धार्मिक तमाशा” बन कर रह गई है।

धार्मिक मंचों की मर्यादा समझनी होगी

जब मंदिरों और भक्ति स्थलों पर डांसरों की धुन पर पांव थिरकते हों, तो यह केवल धार्मिक अपमान ही नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना पर भी कुठाराघात है। यह परंपरा हमारे बच्चों और युवाओं को क्या सिखा रही है?

समाज को करना होगा विचार:

समाज के प्रबुद्धजनों, धर्मगुरुओं और आयोजकों को यह तय करना होगा कि क्या वे आने वाली पीढ़ी को यह दिखाना चाहते हैं कि भक्ति का मतलब मनोरंजन है? क्या पवित्रता की जगह प्रदर्शनवादिता को प्रश्रय देना उचित है?सामाजिक संगठनों और धार्मिक संगठनों को चाहिए कि वे ऐसे आयोजनों में संयम और मर्यादा की सीमा तय करें, और यह सुनिश्चित करें कि धार्मिक स्थलों पर कोई भी आयोजन भक्ति और संस्कृति की गरिमा के अनुकूल हो।भजन संध्याएं हमारी आध्यात्मिक विरासत हैं, उन्हें नाच-गाने के मेलों में तब्दील होने से रोकना हम सभी की ज़िम्मेदारी है।

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