भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति/नागरिक को संविधान के भाग 3 के अंर्तगत अनुच्छेद 12 से 32 तक मौलिक अधिकार दिए गए है। मौलिक अधिकारों के संबंध में मुख्यतया दो प्रकार के सवाल पूछें जाते हैं कि क्या व्यक्ति /नागरिक को संविधान द्वारा प्रदत इन मौलिक अधिकारों को छीना जा सकता है? क्या इनका निलंबन किया जा सकता है? और क्या इन मौलिक अधिकारों का कोई भी व्यक्ति/नागरिक अपनी इच्छा से त्याग कर सकता है।
- क्या इनको निलंबित किया जा सकता है ?
भारतीय संविधान द्वारा इन मौलिक अधिकारों का कुछ परिस्थितियों में निलंबन किया जा सकता है ऐसा प्रावधान है.. लेकिन अनुच्छेद 20 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों को किसी भी उपस्थिति में छीना और निलंबन नहीं जा सकता,उनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
- इन्हे किया जा सकता है निलंबन
संविधान की अनुच्छेद 352 के अंतर्गत जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो तो अनुच्छेद 358 और 359 राष्ट्रपति को यह अधिकार देते हैं कि वह मौलिक अधिकारों का निलंबन कर सकता है।
- स्वतः हो सकते हैं निलंबित :
राष्ट्रीय आपातकाल युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह होने की स्थिति में अनुच्छेद 358 के अनुसार अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार स्वतः ही निलंबित हो जाते हैं, इसके लिए राष्ट्रपति को अलग से आदेश पारित करने की आवश्यकता नहीं होती है।
संविधान के अनुच्छेद 359 के अनुसार जब राष्ट्रीय आपातकाल किसी भी कारण से लागू हो तो राष्ट्रपति एक अलग से घोषणा करके एक या अधिक मौलिक अधिकारों को निलंबित भी कर सकता है।
- क्या स्वेच्छा से त्याग किया जा सकता है ?
मौलिक अधिकारों का निलंबन किया जा सकता है पर सवाल उत्पन्न होता है कि क्या कोई भी व्यक्ति/ नागरिक अपनी स्वेच्छा से इन मौलिक अधिकारों का परित्याग कर सकता है या नहीं तो….. आपको बता दे कि भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति/नागरिक संविधान द्वारा प्रदत्त इन मौलिक अधिकारों को अपनी स्वेच्छा से नहीं त्याग सकता और इसी घोषणा कर सकता है और नही ही ऐसा प्रयास कर सकता है।
- मूल अधिकारों की गारंटी देता है संविधान :
मौलिक अधिकार कि राज्य गारंटी देता है व्यक्ति इनका त्याग नहीं कर सकता और राज्य इस तरह के परित्याग को स्वीकार नहीं कर सकता है…अगर ऐसा करता है तो वह कानूनी रूप से दोषी माना जाता है उसे ऐसा करने से या मौलिक अधिकारों का त्याग करने से रोका जा सकता है।… उदाहरण के लिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार देता है अगर कोई भी व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से जीवन जीने के अधिकार को त्यागता है या ऐसा प्रयास करता है तो वह है इसका दोषी है ।
ध्यातव्य: संविधान ने मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी दी है सरकार और राज्य का कर्तव्य है कि वह इन मौलिक अधिकारों की रक्षा करें।
इनकी राय : चीफ जस्टिस एस.आर.दास और जस्टिस जीवनलाल कपूर ने अपने विचार रखते हुए कहा कि केवल अनुच्छेद 14 के अंतर्गत दिए गए अधिकार का परित्याग नहीं किया जा सकता है, वहीँ जस्टिस नटवरलाल एच.भगवती ने यह विचार व्यक्त किया कि एक नागरिक, भाग- III में मौजूद किसी भी मौलिक अधिकार का परित्याग नहीं कर सकता है।
- अधित्याग का सिद्धांत(Doctrine of Waiver)क्या है ?
व्यक्ति संविधान द्वारा प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों को स्वेच्छा से नहीं त्याग सकता, इसे ही अधित्याग का सिद्धांत कहा जाता है। ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, अधित्यजन के सिद्धांत (Doctrine of Waiver) को “कानूनी अधिकार या लाभ के स्वैच्छिक त्याग या परित्याग (व्यक्त या निहित)” के रूप में परिभाषित किया है।
ध्यातव्य: प्रथम बार बहराम खुर्शीद पेसिकाका बनाम बॉम्बे राज्य (1955) 57 BOMLR 575 के वाद में संक्षिप्त रूप से चर्चा की गई थी, लेकिन इस बिंदु पर प्रमुख निर्णय बशेशर नाथ बनाम सीआईटी 1959 SCR Supl.(1) 528 का है। दोनों ही मामलों में यह साफ़ किया गया था कि मौलिक अधिकारों का परित्याग नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने नर सिंह पाल बनाम भारत संघ (2000) 3 SCC 588 के मामले में भी ऐसा ही निर्णय दिया था।
ध्यातव्य :अमेरिका में आदि त्याग के सिद्धांत के संबंध में भारत से अलग प्रावधान और परिस्थितियां है अमेरिका में बॉयकिन बनाम अलबामा, 395 U.S. 238 (1969) के मामले में यह निर्धारित किया गया था कि मौलिक अधिकारों का अधित्यजन किया जा सकता है।