पिछले दिनों पश्चिमी बंगाल में राज्य विधानसभा के निर्वाचन हुए जिसमें तृणमूल कांग्रेस कि ममता बनर्जी ने अपार सफलता प्राप्त की ।


 चुनाव के पश्चात पश्चिमी बंगाल में जगह-जगह हिंसा का तांडव देखने को मिला जो एक चिन्तनीय और गंभीर मुदा है । इस विषय पर वहां के राज्यपाल महोदय मानव अधिकार आयोग के प्रतिनिधियों से भी मिले । चुनाव के बाद की घटना और स्थिति की गंभीरता को लेकर उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई जो इस मैटर को सुन रहा है  और अब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई जिसमें सर्वोच्च न्यायालय इसे सुनेगा । 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने जारी किये नोटिस बंगाल में हलचले तेज

एक बार फिर से विष्णु शंकर जैन की याचिका सहित 2 याचिका सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई ।  जिसमें यह कहा जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में न केवल पैरामिलिट्री फोर्स लागू की जाये बल्कि वहा एस आई टी  भी लागू की जाए साथ ही कहा यह भी जा रहा है कि  अनुच्छेद 355 का प्रयोग करते हुए केंद्र  सरकार पश्चिम बंगाल सरकार को निर्देश दें । पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर चुनाव आयोग और पश्चिमी बंगाल सरकार को नोटिस भी जारी कर दिए है ।

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा याचिका स्वीकार कर नोटिस जारी करने के बाद अब एक बार फिर से सियासी गलियारों में हलचल लेते हैं और बंगाल में राष्ट्रपति शासन की चर्चाएं जोरों पर है ।

  • विधान सभा सदस्य बनना भी एक चुनोती

वहीं दूसरी और ममता बनर्जी फिलहाल पश्चिम बंगाल विधानसभा की सदस्य भी नहीं है  । उसे शपथ ग्रहण करने के 6 महीनों के भीतर सदस्य बनना आवश्यक है लेकिन वर्तमान कोरोना संक्रमण काल की परिस्थितियों में चुनाव करवाए जाना संभव नहीं लगता है और ऐसा ही संकेत चुनाव आयोग ने दिया है । अब देखना है न्यायपालिका का इस मामले में क्या रुख रहता है, ममता बनर्जी की कुर्सी जाती है या फिर वह अपनी सरकार को बचा पाती है। केन्द्र सरकार का रुख क्या होगा यह भी देखने योग्य होगा ।

नि संदेह न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के आधार पर हस्तक्षेप कर सकती है। लेकिन यह भी समझना होगा कि सक्रियता एक दुर्लभ अपवाद के रूप में अच्छी हो सकती है, परंतु एक अतिसक्रियता के रूप में न्यायपालिका न तो देश के लिये अच्छी है और न ही न्यायपालिका के लिये।

  • अनुच्छेद 356 की घोषणा और राष्ट्रपति 

पश्चिमी बंगाल में भले ही राष्ट्रपति शासन की संभावनाओं को व्यक्त किया जाता रहा हो  । वहां इसकी सिफारिश की जाए या नही की जाए ,यह लागू हो या नही यह एक अलग विषय है लेकिन अगर केंद्र सरकार पश्चिमी बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश राष्ट्रपति को कर देती है  तो राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह उस सिफारिश को एक बार पुनर्विचार के लिए वापस लौटा सकता है और ऐसा कई बार हुआ भी है । राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने 1977 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार के खिलाफ मंत्रिमंडल के प्रस्ताव को दो बार यह कहते हुए लौटा दिया था कि राज्य में इस प्रकार राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना संवैधानिक रूप से असंगत होगा। 

  • फैसले के खिलाफ याचिका का है प्रावधान

कई बार देखा गया है कि राष्ट्रपति के द्वारा घोषित किए गए राष्ट्रपति शासन को न्यायपालिका में चुनौती दी गई है। इसी आधार पर देखा जाए तो पश्चिमी बंगाल सरकार को गिरा कर अगर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है तो यह मामला एक बार फिर से न्यायपालिका के समक्ष जा सकता है।

  • राष्ट्रपति शासन का आधार 


 जैसा कि आपको ज्ञात है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 365 के तहत अगर कोई भी राज्य केंद्र सरकार के निर्देश को नहीं मानती है तो यह माना जाएगा कि उस राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है और प्रांतीय सरकार संविधान के अनुसार संचालित नहीं हो रही है। इसलिए वहां पर अनुच्छेद 356 का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है ।  
क्या सर्वोच्च न्यायालय पश्चिम बंगाल में करीब 2 महीनों से चुनी हुई सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की सिफारिश भारत सरकार से करेगी या केंद्र को निर्देश देगी कि वह राष्ट्रपति को इस प्रकार की सिफारिश करें ।

  • अनुच्छेद 356 और विवादों का रहा है गहरा नाता

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 संविधान का एक विवादित अनुच्छेद रहा है । संविधान निर्माण के दौरान भी इसके दुरुपयोग का अंदेशा किया गया था। संविधान निर्माण  के दौरान  डॉ. अम्बेडकर ने इस आलोचना का जवाब देते हुये कहा था कि अनुच्छेद 356 की यह उग्र शक्ति एक मृत पत्र की तरह ही रहेगा और इसका प्रयोग अंतिम साधन के रूप में ही किया जाएगा लेकिन हो उसका बिल्कुल उल्टा हो रहा ।

संविधान लागू होने के बाद अब तक करीब 125 से अधिक बार लागू किया जा चुका है । जिनमें से अधिकतर इसका प्रयोग केंद्र सरकार ने अपने विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने में ही किया हैं । इसको लेकर कई बार केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच विवाद का कारण बना है । प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय इसका करीब 50 बार तथा मोरारजी देसाई के समय से 16 बार प्रयोग किया गया। 

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