संविधान निर्मात्री सभा की 13 दिसंबर 1946 को आयोजित तीसरी बैठक में पंडित जवाहरलाल नेहरु के द्वारा उद्देशिका प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। आखिर यह उद्देशिका प्रस्ताव क्या था इसे प्रस्तुत करने का क्या उद्देश्य था ? आइए जानते है उद्देशिका प्रस्तावना और प्रस्तावना के बारे में……
- उद्देशिका प्रस्ताव क्या है ?
संविधान सभा के गठन के पश्चात पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा सविधान सभा की तीसरी बैठक 13 दिसंबर 1946 को विधानसभा के पटल पर उद्देशिका प्रस्ताव प्रस्तुत किया था और इस उद्देशिका प्रस्ताव के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया था की इस सविधान सभा का उद्देश्य क्या है और देश के भावी संविधान में किन बातों का समावेश किया जायेगा।
पंडित नेहरू द्वारा प्रस्तावित इस उद्देशिका प्रस्ताव काफी गहन चर्चा और बहस के पश्चात इस पर लगभग 7 दिनों तक चर्चा करने के बाद 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा के द्वारा इसे स्वीकार कर लिया गया।
- प्रस्तावना क्या है?
जिस प्रकार किसी भी पाठ्यपुस्तक, किसी भी साहित्य, कोई भी पुस्तक लिखे जाने पर पुस्तक के शुरुआती पृष्ठों पर उस पुस्तक के बारे में संक्षिप्त परिचय दिया जाता है जैसे पुस्तक लिखे जाने का उद्देश्य, पुस्तक किस विषय पर लिखी जा रही है, लिखी गई है पुस्तक की प्रकृति क्या है,पुस्तक कब प्रकाशित हुई है,पुस्तक का प्रकाशन कौन है और पुस्तक लेखन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से किन लोगों का सहयोग रहा है, इन सबका समावेश होता है ।
इस उद्देशिका प्रस्ताव / प्रस्तावना/भूमिका/ प्राकथन को पढ़कर पुस्तक के बारे में संक्षिप्त रूप से जानकारी प्राप्त हो जाती है । उसी प्रकार संविधान की भी अपनी एक प्रस्तावना, एक उद्देशिका होती है जो हमें शक्ति का स्रोत,राज्य की प्रकृति, संविधान का उद्देश्य, संविधान निर्माण की तारीख, शासन का स्वरूप और संविधान के अधीनियमित होने की तिथि से अवगत कराती है।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना का स्रोत
भारतीय संविधान की प्रस्तावना संयुक्त राज्य अमेरिका और प्रस्तावना की भाषा ऑस्ट्रेलिया के संविधान से प्रेरित है। प्रस्तावना का सर्वप्रथम प्रयोग विश्व के सबसे पहले लिखित संविधान संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में समावेशित की गई थी उसके पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में भी प्रस्तावना का उल्लेख है।
अंग्रेजी शासन काल में सर्वप्रथम 1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम में इसका प्रयोग किया गया था लेकिन 1935 के अधिनियम इसका समावेश नहीं था तत्पश्चात इसकी आलोचना की जाने पर 1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम की प्रस्तावना को ही 1935 के अधिनियम की प्रस्तावना बना दी गई।
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना
” हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी,पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक, न्याय,विचार,अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं।
- प्रस्तावना संविधान का अंग है या नहीं
भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं इस बात का समाधान संविधान लागू हो जाने के करीब 26 वर्षों तक अनुत्तरित रहा। सर्वोच्च न्यायालय में समय-समय पर आए अनेक मामलों में प्रस्तावना को लेकर अलग-अलग निर्णय आए, कभी इसे प्रस्तावना का हिस्सा स्वीकार कर लिया गया तो कभी इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना गया। सर्वप्रथम एन.के गोपालन बनाम मद्रास राज्य 1950 के मामले में प्रस्तावना को संविधान का अंग नहीं माना गया उसी प्रकार बेरुबारी बनाम यूनियन मामले 1960, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य 1965,में इसे संविधान का अंग स्वीकार नहीं किया गया । लंबे समय के बाद सन 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ ने अपने निर्णय में प्रस्तावना को संविधान का अंग स्वीकार कर लिया।
ध्यातव्य : प्रस्तावना गैर न्यायिक है इसका तात्पर्य है कि इसकी व्यवस्थाओं को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
- संसद प्रस्तावना में संशोधन कर सकती है या नहीं ?
संविधान में संशोधन किए जाने का अधिकार भारतीय संसद को प्राप्त है और इस बात का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 368 में भी उल्लेखित है।अब सवाल यह उत्पन्न होता है क्या प्रस्तावना में भी संशोधन किया जा सकता है ? इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता था कि यह प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं, अगर इसे संविधान का हिस्सा मान लिया जाए तो संसद को इसमें संशोधन करने का अधिकार है और अगर संविधान का हिस्सा स्वीकार नहीं किया गया तो संसद द्वारा इसमें संशोधन नहीं किया सकता ।
- केशवानंद भारती मामले के बाद आया बदलाव
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के मामले से पहले प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा नहीं माना गया था अतः इसमें संसद को संशोधन करने का अधिकार नहीं था, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के निर्णय के बाद प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा मान लिया गया तो संविधानिक रूप से प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार संसद को प्राप्त हो गया है, लेकिन संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार उसी सीमा तक है जिस सीमा तक संविधान के मूल ढांचे को नुकसान न पहुंचाया जाए। अतः 1973 के केशवानंद भारती मामले में पहली बार संविधान के मूल ढांचे की विचारधारा का विकास हुआ।
ध्यातव्य: एलआईसी ऑफ इंडिया मामला 1995 में भी प्रस्तावना को संविधान का अंग स्वीकार किया गया था।
- संविधान की प्रस्तावना में संशोधन
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अब तक केवल एक बार संशोधन किया गया है । भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी,पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्दों का उल्लेख नहीं था लेकिन बाद में इंदिरा गांधी के शासनकल में कांग्रेस द्वारा गठित सरदार स्वर्ण सिंह समिति के परामर्श पर अब तक का सबसे बड़ा संविधान संशोधन 42वां संविधान संशोधन अधिनियम 1976 कर ये तीन शब्द जोड़े गए।
ध्यातव्य सरदार स्वर्ण सिंह तत्कालीन मंत्रिमंडल में रेल मंत्री थे।
ध्यातव्य : भारतीय संविधान की प्रस्तावना तीन प्रकार के न्याय का उल्लेख किया गया है =सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तथा पांच प्रकार की स्वतंत्रता विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना और दो प्रकार की समता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान की गई है।
- प्रस्तावना के संबंध में कथन
भारतीय संविधान की प्रस्तावना को के.एम. मुंशी ने संविधान की राजनीतिक कुंडली, बार्कर ने संविधान की कुंजी और ठाकुरदास भार्गव,पंडित जवाहरलाल नेहरु, लक्ष्मी मल सिंघवी ने इसे संविधान की आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने इसे संविधान की मूल आत्मा कहा है इसके अतिरिक्त एन. ए. पालकीवाला ने इसे संविधान का परिचय व पंडित गोविंद दास ने इसे संविधान की आधारशिला कहा है।